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________________ अध्ययनं - -- [ नि. १३११] भासियव्वा हिया भासा, सपक्खगुणकारिणी ।। ५ ।। सिलोगो, श्लोकद्वयमपि कण्ठ्यं । तथानि. (१३१२) नि. (१३१३) वृ- इदमपि गाथाद्वयं कण्ठ्यमेव, ताणं सव्वाण दव्वविउस्सग्गो, जं रज्जाणि उज्झियाणि, भावविउस्सग्गो कोहादीनं, विउस्सग्गेत्ति गयं २५, इदानिं अप्पमाएत्ति, न पमाओं अप्पमाओ, तत्थोदाहरणगाहा नि. (१३१४ ) जहा जलता कट्टाई, उवेहाई न चिरं चले । घट्टिया घट्टिया झत्ति, तम्हा सहह घट्टणं ।। सुचिरंपि वंकुडाई होर्हिति अनुपमज्जमाणाई । करमद्दिदारुयाइं गयंकुसागारबेंटाई || रायगिहमगहसुंदरि मगहसिरी पउमसत्थपक्खेवो । परिहरिय अप्पमत्ता नहं गीयं नवि य चुक्का ।। २०३ वृ- इमीए वक्खाणं- रायगिहे नयरे जरासंधो राया, तस्स सघप्पहाणाओ दो गणियाओ - मगहसुंदरी मगहसिरीय, मगहासिरी चिंतेइ जइ एस न होज्जा ता मम अन्नी माणं न खंडेज्जा, राया य करयलत्थो होज्जत्ति, साय तीसे छिद्दाणि माइ, ताहे मगहासिरी नट्टदिवसंमि कन्नियारेसु सोवन्नियाओ संवलियाओ विसधूवियाओं सूचीओ केसरसरिसियाओ खित्ताओ, ताओ पुन तीसे मगहसुंदरीए मयहरियाए ऊहियाओ, कहं भमरा कन्नियाराणि न अल्लियंति चूएसु निलेति ?, नूनं सदोसाणि पुप्फाणि, जइ य भणीहामि एएहिं पुप्फेहिं अञ्च्चणिया अचोक्खा विसभावियाणि वा ता गामेल्लगत्तणं होहित्ति उवाएणं वारेमित्ति, साय रंगओइनिया, अन्नया मंगलं गिज्जइ, सा इमं गीतियं पगीयापत्ते वसंतमासे आमोअपमोअए पवत्तंमि । नि. (१३१५) Jain Education International भूत्तूण कन्निआरए भमरा सेवंति चूअकुसुमाई ।। वृ- गीतिं इमा निगदसिद्धैव, सो चिंतेइ - अपुव्व गीतिया, तीए नायं-सदोसा कणियारत्ति परिहरंतीए गीयं नच्चियं च सविलासं, न य तत्थ छलिया, परिहरिय अप्पमत्ता नट्टं गीयं न कीर चुक्का, एवं साहुणावि पंचविहे पमाए रक्खतेनं जोगा संगहिया २६ । इदानिं लवालवेत्ति, सो य अप्पमाओ वे अद्धलवे वा पमायं न जाइयव्वं, तत्थोदाहरणगाहा - नि. (१३१६) भरुयच्छंमि य विजए नडपिडए वासवासनागधरे । ठवणा आयरियस्स (उ) सामायारीपउंजणया ।। वृ- इमीए वक्खाणं- भरुअच्छे नयरे एगो आवरिओ, तेन विजओ नाम सीसो उज्जेनीकज्जेण पेसिओ, सो जाइ, तस्स गिलाणकज्जेण केणइ वक्खेवो, सो अंतरा अकालवासेण रुद्धो, अंडगतणउज्झियंति नडपिडए गामे वासावासं ठिओ, सो चिंतेइ - गुरुकुलवासो न जाओ, इहंपि करेमि जो उवएसो, तेन ठवणायरिओ कओ, एवमावासगमादीचक्कवालसामायारी सव्वा विभासियव्या, एवं किल सो सव्वत्थ न चुक्को, खणे २ उवजुज्जइ - किं मे कयं ?, एवं किर साहुणा कायव्वं, एवं तेन जोगा संगहिया भवंति २७ । लवालवेत्ति गयं, इदानिं झाणसंवरजोगेत्ति, झाणेण जोगा संगहिया, तत्थोदाहरणं For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003377
Book TitleAgam Sutra Satik 40 Aavashyak MoolSutra 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages808
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 40, & agam_aavashyak
File Size16 MB
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