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शतकं-१४, वर्गः-, उद्देशकः-५
१४३ -शतकं-१४ उद्देशकः-५:वृ. चतुर्थोद्देशके परिणाम उक्त इति परिणामाधिकाराद्वयतिव्रजनादिकं विचित्रं परिणाममधिकृत्य पञ्चमोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्
__'मू. (६१२) नेरइए णं भंते ! अगनिकायस्स मज्झंमज्झेणं वीइवएजा?, गोयमा ! अत्यंगतिए वीइवएजा अत्यंगतिए नो वीइवएजा, से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए वीइवएना अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा?, गोयमा! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावनगा य अविग्गहगतिसमावनगा य, तत्थ णंजे से विग्गहगतिसमावन्नए नेरतिए से णं अगनिकायस्स मज्झमझेणं वीइवएजा, से णं तत्व झियाएजा?, नो तिणढे समटे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, तत्थ णंजे से अविग्गहगइसमावनए नेरइए सेणं अगनिकायस्स मज्झंमज्झेणं नो वीइवएजा, से तेणटेणं जाव नो वीइवएज्जा। ___असुरकुमारेणं भंते! अगनिकायस्स पच्छा, गोयमा! अत्थेगतिए वीइवएना अत्थेगतिए नो वीइवएजा, से केणडेणं जाव नो वीइवएना?, गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-विग्गहगइसमावगनगाय अविग्गहगइसमावन्नगाय, तत्थणंजे से विग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं एवं जहेव नेरतिए जाव वक्कमति, तत्थ णंजे से अविग्गहगइसमावन्नए असुरकमारे सेणं अत्थेगतिए अगनिकायस्स मज्झंमज्झेणं वीतीवएजा अत्यंगतिए नो वीइव०, जेणं वीतीवएजा सेणं तत्थ झियाएज्जा ? नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति, से तेणटेणं एवं जाव धणियकुमारे, एगिदिया जहा नेरइया।
बेइंदिया णं भंते! अगनिकायस्स मझमझेणं जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिएवि, नवरं जेणं वीयीवएजा से णं तत्थ झियाएजा?,हता झियाएज्जा, सेणं तं चेव एवं जाव चउरिदिए। __पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगनिकायपुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएजा, से तेणट्टेणं०?, गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजगा-विग्गहगतिसमावनगा य अविग्गहगइमासवनगाय, विग्गहगइमासवत्रएजहेव नेरइए जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमइ। ___अविग्गहगइसमावनगा पंचिंदियतिरिक्खजोणि दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-इड्डिष्पत्ता य अणिहिप्पत्ताय, तत्थ मंजे से इडिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिएसेणंअत्यगइएअगनिकायस्स मज्झमझेणं वीयीवएज्जा अत्थेगइए नो वीयीवएजा, जेणं वीयीवएजा सेणंतत्य झियाएजा नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्यं कमइ।
तत्थ णं जे से अणिहिष्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगनिकायस्स मझमझेणं वीयीवएज्जा अत्थेगतिएनो वीइवएजा,जेणंबीयीवएज्जा से णंतत्व झियाएजा?, हंता झियाएजा, सेतेणटेणं जाव नो वीयीवएज्जा।
एवं मणुस्सेवि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिए जहा असुरकुमारे ।। वृ. 'नेरइए णमित्यादि, इह च क्वचिदुद्देशकार्थःसङ्ग्रहगाथा दृश्यते, सा चेयं॥१॥ "नेरइय अगणिमज्झे दस ठाणा तिरिय पोग्गले देवे ।
पव्वयभित्ती उलंघणा य पल्लंघणा चेव ।।" इति ।
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