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________________ ३४२ भगवतीअङ्गसूत्रं ७/-/९/३७५ सरिसव्वए सरिसभंडमत्तोवगरणे रहेणं पडिरहं हव्वमागए, तए णं से पुरिसे वरुणं नागनत्तुयं एवं वयासी। पहण भो वरुणा! नागणत्तुया ! प०२, तएणं से वरुणे नागनत्तुए तं पुरिसं एवं वदासीनो खलु मे कप्पइ देवाणुप्पिया! पुब्बिं अहयस्स पहनित्तए, तुमचेवणं पुव्वं पहणाहि, तएणं से पुरिसे वरुणं नागनत्तुएणं एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे घणु पामुसइ २ उसुं परामुसइ उसुं परामुसित्ता ठाणं ठाति ठाणं ठिचा आययकन्नाययंउसुंकरेइ आययकवाययं उसुं करेत्ता वरुणं नागनत्तुयं गाढप्पहारी करेइ। तए णं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे आसुरुत्ते जाव मिसिमिसेमाणे घणुं परामुसइ घणु परामुसित्ता उसु परामुसइ उसुं परामुसित्ता आययकन्नाययं उसुं करेइ आययकन्नाययं०२ तं पुरिसं एगाहचं कूडाहचं जीवियाओ ववरोवइ। तएणं से वरुणे नागनत्तुए तेणं पुरिसेणं गाढप्पहारी कए समाणे अत्थामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधारनिञ्जमितिकट्ठ तुरए निगिण्हइ तुरए निगिहित्ता रहं परावत्तेइ रहं परावत्तित्तारहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खमतिरएगंतमंतंअवक्कमइ एगंतमंतं अवक्कमित्ता तुरए निगिण्हइ २ रहं ठवेइ २ ता रहाओ पच्चोरुहइ रहाओ २ रहाओ तुरए मोएइ तुरए मोएत्ता तुरए विसज्जेइ २ ता २ दब्भसंथारगं संथरइ २ दब्भसं० दुरूहइ २ पुरच्छाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयल जाव कट्ठ एवं वयासी नमोत्थुणं अरिहंताणंजाव संपत्ताणं नमोऽत्युणं समणस्स भगवओमहावीरस्स आइगरस्स जाव संपाविउकामस्स मम धम्मायरियस धम्मोवदेसगस्स वंदामिणं भगवन्तं तत्थगयं इहगए पासउ मे से भगवंतत्थगए जाव वंदति नमसति २ एवं वयासी। पुब्बिंपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए थूलए पाणातिवाए पञ्चखाए जावजीवाए एवंजाव थूलए परिग्गहे पच्चक्खाए जावज्जीवाए, इयाणिपिणं अरिहंतस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं सव्वं पाणातिवायं पञ्चक्खामि जावजीवाए एवं जहा खंदओ जाव एयंपिणं चरमेहिं ऊसासनीसासेहिं वोसिरिस्सामित्तिक? सन्नाहपट्टमुयइ सन्नाहपट्टमुइत्ता सल्लुद्धरणं करेति सल्लुद्धरणं करेत्ता आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते आनुपुब्बीए कालगए। तए णं तस्स वरुणस्स नागनत्तुयस्स एगे पियबालवयंसए रहमुसलं संगाम संगामेमाणे एगेणं पुरिसेणं गाढप्पहारीकए समाणे अत्थामे अबलेजावअधारनिजमितिकट्ठवरुणंणनगनत्तुयं रहमुसलाओ संगामाओ पडिनिक्खममाणं पासइ पासइत्ता तुरए निगेण्हइ तुरए निगेण्हित्ता जहा वरुणे जाव तुरए विसजेति पडसंथारगं दुरूहइ पडसंथारगं दुरूहित्ता पुरत्याभिमुहे जाव अंजलिं कटु एवं वयासी जाइंणंभंते! मम पियवालवयस्सस्स वरुणस्स नागनतुयस्ससीलाइवयाइंगुणाइंवेरमणाई पच्चक्खाणपोसहोववासाइंताइणंममंपि भवंतुत्तिकटुसन्नाहपट्टमुयइ २ सल्लुद्धरणंकरेति सल्लुद्धरणं करेत्ता आनुपुवीए कालगए, तए णं तं वरुणं नागणत्तुयं कालगयं जानित्ता अहासन्निहिएहिं वाणमंतरेहिंदेवेहिं दिव्वे सुरभिगंधोदगवासे वुढे दसद्धवन्नेकुसुमेनिवाडिएदिव्यगीयगंधव्वनिनादे कए यावि होत्था। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003339
Book TitleAgam Sutra Satik 05 Bhagavati AngSutra 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages1096
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Agam 05, & agam_bhagwati
File Size23 MB
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