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________________ अध्ययनं - ४ - [ नि. १३९७] २२९ चेव अनुवहएण उवओगओ सुपडियग्गिएण सव्वकालेण पढंति न दोसो, अहवा वेरतिय अनुरत्तियेऽगहिए दोन्नि अहवा अड्डरत्तियपाभाइयगहिएसु दोन्नि अहवा वेरत्तियपाभाइ एसु गहिएसु, जदा एक्को तदा अन्नतरं गेहइ । कालचउक्ककारणा इमे कालचउक्के गहणं उस्सग्गविही चेव, अहवा पाओसिए गहिए उवहए अड्ढरतं घेत्तुं सज्झायं करेंति, पाभाइओ दिवसट्ठा घेतव्वो चेव, एवं कालचउक्कं दिट्टं, अनुवहए पाओसिए सुपडियग्गिए सव्वं राई पढंति, अडरत्तिएणवि वेरत्तियं पढंति, वेरत्तिएणवि अनुवहएण सुपडियग्गिएण पाभाइय असुद्धे उद्दिट्टं दिवसओवि पढंति । कालचउक्के अग्गहणकारणा इमे -पाउसियं न गिण्हंति असिवादिकारण ओ न सुज्झति वा, अड्ढरत्तियं न गिण्हंति कारणतो न सुज्झति वा पाओसिएण वा सुपडियग्गिएण पढंति न गेण्हंति, वेरत्तियं कारणओ न गिण्हंति न सुज्झइ वा, पाओसिय अड्डुस्तेण वा पढंति, तिन्नि वा नो गेण्हंति, पाभाइयं कारणओ न गिण्हइन सुज्झइ वा वेरत्तिएणेव दिवसओ पढंति ।। इदानिं पाभाइयकालग्गहणविहिं पत्तेयं भणामि - नि. (१३९८ ) पाभाइयकालंमि उ संचिक्खे तिन्नि छीयरुन्नाणि । परवयणे खरमाई पावासुय एवमादीनि ।। वृ- व्याख्या त्वस्या भाष्यकारः स्वयमेव करिष्यति । तत्थ पाभाइयंमि काले गहणविही पट्टवणविही य, तत्थ गहणविही इमा भा. (२२४) नवकालवेलसेसे उवग्गहियअट्टया पडिक्कमइ । न पडिक्कमइ वेगो नववारहए धुवमसज्झाओ ! ।। वृ- दिवसओ सज्झायविरहियाण देसादिकहासंभववज्जणट्ठा मेहावीतराण य पलिभंगवज्जणट्ठा, एवं सव्वेसिमणुग्गहट्ठा नवकालग्गहणकाला पाभाइए अनुन्नाया, अओ नवकालग्गहणवेलाहिंसेसाहिं पाभाइयकालग्गाही कालस्स पडिक्कमपि, सेसावि तं वेलं पडिक्कमंति वा न वा, एगो नियमान पडिक्कमइ, जइ छीयरुदिदादीहिं न सुज्झइ तो सो चेव वेरत्तिओ सुपडियग्गिओ होहितित्ति । सोवि पडिक्कंतेसु गुरुणो कालं निवेदित्ता अनुदिए सूरिए कालस्स पडिक्कमति, जइ घेप्पंतो नववारे उवहओ कालो तो नज्जइ ध्रुवमसज्झाइयमत्थित्ति न करेंति सज्झायं ।। नववारगहणविही इमो - 'संचिक्खे तिन्नि छीतरुन्नाणि' त्ति अस्य व्याख्याभा. (२२५) Jain Education International इक्किक्क तिन्नि वारे छीयाइहयंमि गिण्हए कालं । चोएइ खरो बारस अनिट्ठविसए अ कालवहो ।। वृ- एक्स्स गिण्हओ छीयरुदादिहए संचिक्खइत्ति ग्रहणाद्विरमतीत्यर्थः, पुणो गिण्हइ, एवं तिन्नि वारा, तओ परं अन्नो अन्नंमि थंडिले तिन्नि वाराउ, तस्सवि उवहए अन्नो अन्नंमि थंडिले तिन्निवारा, तिण्हं असई दोन्नि जना नव वाराओ पूरेइ, दोण्हवि असतीए एक्को चेव नववाराओ पूरेइ, थंडिलेसुवि अववाओ, तिसु दोसु वा एक्वंमि वा मिण्हंतीति ।। 'परवयणे खरमाई' अस्य व्याख्या 'चोएइ खरो पच्छद्धं' चोदक आह-जदि रुदतिमणिट्टे कालवहो ततो खरेणरडिते बारह वरिसे उवहंमउ, अन्नेसुवि अनिट्ठइंदियविसएसु एवं चेव कालवहो भवतु ?, आचार्य आह भा. (२२६) चो मानुनि कालो सेसगाण उपहारो । पावासुआइ पुव्विं पन्नवणमनिच्छ उग्घाडे ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003329
Book TitleAgam Suttani Satikam Part 25 Aavashyaka
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipratnasagar, Deepratnasagar
PublisherAgam Shrut Prakashan
Publication Year2000
Total Pages356
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_aavashyak
File Size19 MB
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