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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-(१) ईदृङ् । इदम्+दृश्+क्विन् । इदम्+दृश्+वि। इदम्+दृश्+० । ईश्+दृश् । ई+दृश् । ईदृश्+सु। ईट्ट नुम् श्+सु। ईदृन्श्+स् । ईदृन्श्+० । ईदृन् । ईदृन्। ईदृङ्।
यहां इदम्-उपपद दृशिर् प्रेक्षणे' (भ्वा०प०) धातु से 'त्यदादिषु दृशोऽनालोचने कञ्च' (३।२।६०) से क्विन्' प्रत्यय है। इदकिमोरीश्की (६।३।९०) से 'इदम्' के स्थान में 'ईश्' आदेश होता है। 'हल्याब्भ्यो दीर्घात्' (६।१।६७) से 'सु' का लोप और 'संयोगान्तस्य लोपः' (८।२।२३) से संयोगान्त शकार का लोप होता है। क्विन्प्रत्ययस्य कुः' (८।२।६२) से नकार को कुत्व डकार होता है।
(२) तादृङ्। यहां तत्-उपपद दृश्' धातु से पूर्ववत् क्विन्' प्रत्यय है। 'आ सर्वनाम्नः' (६।३।९१) से आत्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(३) सदङ् । यहां समान-उपपद दृश्' धातु से वा०- समानान्ययोश्चेति वक्तव्यम् (३।२।६०) से 'क्विन्' प्रत्यय है। दृक्श वतुषु' (६।३।८९) से 'समान' के स्थान में 'स' आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(४) स्ववान् । स्ववस्+सु। स्ववनुम्स्+स् । स्ववन्स्+स्। स्ववान्स्+स् । स्ववान्स्+० । स्ववान् । स्ववान्।
यहां स्ववस्’ शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से सु' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'सु' प्रत्यय परे होने पर स्ववस्' शब्द को नुम्' आगम होता है। 'सान्तमहत: संयोगस्य' (६।४।१०) से नकारान्त अग की उपधा को दीर्घ होता है। पूर्ववत् सुलोप और संयोगान्त सकार का भी लोप होता है। शोभनम् अवसम्=रक्षणादिकं यस्य स स्ववान् (गृहपतिः)। महर्षिदयानन्द ऋग्वेदभाष्य (५।८।२)।
ऐसे ही स्वतवस्' शब्द से स्वतवस्वान् स्वम् स्वकीयं तव: बलं यस्य स स्वतवान् (विद्वान्)। महर्षि दयानन्द ऋग्वेदभाष्य (१।६६।२)। स्वैर्गुणैर्वृद्धः (इन्द्रः राजा) महर्षिदयानन्द ऋग्वेदभाष्य (४।२।६)।
।। इति आगमप्रकरणम् ।।
आदेशागमप्रकरणम् औत्-आदेशः
(१) दिव औत्।८४। प०वि०-दिव: ६१ औत् १।१। अनु०-अङ्गस्य, साविति चानुवर्तते। अन्वय:-दिवोऽङ्गस्य सावौत् ।
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