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सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः
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आर्यभाषाः अर्थ- (छन्दसि ) वेदविषय में (अपि) भी (नपुंसकानाम्) नपुंसकलिङ्ग (अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णाम् ) अस्थि, दधि, सक्थि, अक्षि इन (इकाम् ) इगन्त (अङ्गानाम् ) अङ्गों को (उदात्तः) उदात्त (अनङ्) अनङ् आदेश (दृश्यते) देखा जाता है। उदाहरण
(१) 'अचि' अर्थात् अजादि विभक्ति परे होने पर अनङ् आदेश कहा है, यह छन्द में अनजादि = हलादि विभक्ति परे होने पर भी होता है-इन्द्रो दधीचोऽस्थभि: (ऋ० १ / ८४ (१३) भद्रं पश्येमाक्षभि: (यजु० २५ / २१) ।
(२) तृतीया - आदि विभक्तियों के परे होने पर अनङ् आदेश कहा है, यह छन्द में अतृतीयादि (प्रथमा- द्वितीया) विभक्ति परे होने पर भी होता है- अस्यान्युत्कृत्य जुहोति ।
(३) विभक्ति परे होने पर अनङ् आदेश कहा गया है, यह अविभक्ति-विभक्ति से भिन्न विषय में भी होता है- अक्षण्वता लाङ्गलेन । अस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति (ऋ० १।१६४।४) ।
सिद्धि-(१) अस्थभिः । अस्थिन्+भिस् । अस्थ् अनङ् + भिस् । अस्थ् अन्+भिस् । अस्थ् अ०+भिस् । अस्थभिः ।
यहां 'अस्थि' शब्द से 'स्वौजस०' (४/१/२) से भिस्' प्रत्यय है । इस सूत्र से छन्दविषय में अनजादि = हलादि भिस्' विभक्ति परे होने पर अनङ् आदेश होता है । 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' ( ८1२ 1७ ) से नकार का लोप होता है।
(२) अस्थानि । अस्थि+शस् । अस्थि+शि। अस्थि+इ। अस्थ्+अनङ्+इ। अस्थन्+इ । अस्थान् + इ । अस्थानि ।
यहां 'अस्थि' शब्द से पूर्ववत् 'शस्' प्रत्यय है। इस सूत्र से छन्द - विषय में तृतीया - आदि विभक्तियों से भिन्न द्वितीया विभक्ति (शस्) परे होने पर भी अनङ् आदेश होता है । 'जशशसो: शि:' ( ७ 18120) से 'शस्' के स्थान में 'शि' आदेश है। 'इन्हन्पूषार्यम्णां शौ' (६ । ४ । १२) से दीर्घ होता है ।
(३) अक्षण्वता । अक्षि + मतुप् । अक्षि+मत्। अक्ष् अनङ्+मत् । अध् अन्+मत् । अक्ष् अन्+नुट्+मत्। अक्ष् अन्+न्+मत्। अक्ष०न्वत् । अक्षण्वत्+टा । अक्षण्वता ।
यहां 'अक्षि' शब्द से 'तदस्यास्यस्मिन्निति मतुप्' (५ 1२1१४ ) से 'मतुप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से विभक्ति से भिन्न इस 'मतुप् ' प्रत्यय के परे होने पर छन्द में 'अक्षि' शब्द को अनङ् आदेश होता है। 'अनो नुट्' (८/२ ।१६ ) से 'मतुप्' को 'नुट्' आगम, 'नलोपः प्रातिपदिकान्तस्य' ( ८12 1७ ) से 'अक्षन्' के नकार का लोप और 'मादुपधायाश्च' ( ८1२ 1९ ) से 'मतुप् ' के मकार को वकारादेश है । तत्पश्चात् 'टा' प्रत्यय करने पर- अक्षण्वता । ऐसे ही 'अस्थि' शब्द से - अस्थन्वतम् ( २1१ ) । द्रष्टव्य- अक्षण्वन्तः कर्णवन्तः सखाय: (ऋ० १०/७१/७) ।
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