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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सिद्धि-अस्मा। अस्थि+टा। अस्थि+आ। अस्थ् अनड्+आ। अस्थ् अन्+आ। अस्थन्+आ। अस्ता।
यहां नपुंसकलिङ्ग, इगन्त 'अस्थि' शब्द से स्वौजस० (४।१२) से 'टा' प्रत्यय है। इस सूत्र से इसे अजादि 'टा' प्रत्यय परे होने पर अनङ् आदेश होता है। यह आदेश डित होने से डिच्च' (१११।५३) के नियम से 'अस्थि' के अन्तिम अच् (इ) के स्थान में किया जाता है। 'अल्लोपोऽन:' (६।४।१३४) से 'अनङ्' के आदिम अकार का लोप होता है। ‘अनङ्' में नकारस्थ अकार उच्चारणार्थ है।
'अस्थि' शब्द 'नविषयस्यानिसन्तस्य' (फिट २।३) से आधुदात है। शेष को ‘अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५५) से अनुदात्त स्वर होता है-अस्थि । इस अनुदात्त इकार के स्थान में विधीयमान 'अनङ्' आदेश भी स्थानिवद्भाव से 'अनुदात्त' प्राप्त था। अत: इस सूत्र में उदात्त' विधान किया गया है। 'अल्लोपोऽन:' (६।४।१३४) से 'अनङ्' को अकार का लोप हो जाने पर 'अनुदात्तस्य च यत्रोदात्तलोप:' (६।१।१६१) से टा' विभक्ति उदात्त होती है-अस्ना। डे' प्रत्यय करने पर-अस्ले। ऐसे हीदना आदि।
अनङ्-आदेशदर्शनम्
(३१) छन्दस्यपि दृश्यते।७६ । प०वि०-छन्दसि ७।१ अपि अव्ययपदम्, दृश्यते क्रियापदम् । अनु०-अङ्गस्य, नपुंसकस्य, इकः, अनङ्, उदात्त इति चानुवर्तते ।
अन्वय:-छन्दसि अपि नपुंसकानाम् अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णाम् इकाम् अङ्गानाम् उदात्तोऽनङ् दृश्यते।
अर्थ:-छन्दसि विषयेऽपि नपुंसकानाम् अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णानिगन्तानाम् अङ्गानाम् उदात्तोऽनङादेशो दृश्यते। उदाहरणम्
(१) अचि अजादावित्युक्तम्, अनजादावपि दृश्यते-इन्द्रो दधीचोऽ अस्थभिः (ऋ० १।८४।१३)। भद्रं पश्येमाक्षभिः (यजु० २५ ।२१)।
(२) 'तृतीयादिषु विभक्तिषु' इत्युक्तम् । अतृतीयादिष्वपि दृश्यतेअस्थान्युत्कृत्य जुहोति।
(३) विभक्तौ' इत्युक्तम् अविभक्तावपि दृश्यते-अक्षण्वता लागलेन (पै०सं० ९।८।१)। अस्थन्वन्तं यदनस्था बिभर्ति (ऋ० १।१६४।४) ।
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