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________________ सप्तमाध्यायस्य प्रथमः पादः ७३ (६।४।८२) से यणादेश होता है। पाणिनि मुनि के मत में पूर्वोक्त ह्रस्वादेश और नुम्-आगम होता है-ग्रामणिना ब्राह्मणकुलेन । ऐसे ही शेष डे आदि आदि विभक्तियों में भी समझें। (२) शुचिना। यहां 'शुचि' शब्द से पूर्ववत् 'टा' प्रत्यय है। गालव आचार्य के मत में पुंवद्भाव होने से 'आङो नास्त्रियाम् (७।३।१२०) से 'टा' के स्थान में ना' आदेश होता है। पाणिनि मुनि के मत में 'इकोऽचि विभक्तौ (७।१।७३) से नपुंसकलिङ्ग में नुम्' आगम होता है-शुचिना। ऐसे ही शेष 'डे' आदि अजादि विभक्तियों में भी समझें। अनङ्-आदेशः (३०) अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामनडुदात्तः।७५। प०वि०-अस्थि-दधि-सक्थि-अक्ष्णाम् ६।३ अनङ् ११ उदात्त: ११। स०-अस्थि च दधि च सक्थि च अक्षि च तानि-अस्थिदधिसक्थ्यक्षीणि, तेषाम्-अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-अङ्गस्य, नपुंसकस्य, इक:, अचि, विभक्तौ, तृतीयादिषु इति चानुवर्तते। अन्वय:-नपुंसकानाम् अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णाम् इकाम् अङ्गानाम् अजादिषु तृतीयादिषु विभक्तिषु अनङ्, उदात्त:। __ अर्थ:-नपुंसकानाम् अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णामिगन्तानाम् अङ्गानाम् अजादिषु तृतीयादिषु विभक्तिषु परतोऽनडादेशो भवति, स चोदात्तो भवति। उदा०-(अस्थि) अस्थना, अस्ने। (दधि) दना, दने। (सक्थि) सक्थ्ना, सक्ने। (अक्षि) अक्ष्णा, अक्ष्णे। आर्यभाषा: अर्थ- (नपुंसकानाम्) नपुंसकलिङ्ग (अस्थिदधिसक्थ्यक्ष्णाम्) अस्थि, दधि, सक्थि, अक्षि इन (इकाम्) इगन्त (अङ्गानाम्) अगों को (अजादिषु) अजादि (तृतीयादिषु) तृतीया-आदि (विभक्तिषु) विभक्तियां परे होने पर (अनङ्) अनङ् आदेश होता है, और वह (उदात्त:) उदात्त होता है। ___ उदा०-(अस्थि) अस्थमा। हड्डी के द्वारा। अस्थने। हड्डी के लिये। (दधि) दध्ना। दही के द्वारा। दध्ने । दही के लिये। (सक्थि) सक्थ्ना । जंघा के द्वारा। सक्ने। जंघा के लिये। (अक्षि) अक्ष्णा। आंख के द्वारा। अक्ष्णे। आंख के लिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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