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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
उदा०
- ( उगित्) भवतु भवान् । आप । भवन्तौ । आप दोनों । भवन्तः । आप सब । ईयसुन्-श्रेयान् । प्रशस्य । श्रेयांसौ। दो प्रशस्य । श्रेयांसः । सब प्रशस्य। शतृ-पचन् । पकाता हुआ। पचन्तौ । दो पकाते हुये । पचन्त: । सब पकाते हुये। (अञ्चति) प्राङ् । पूर्वं दिशा । प्राञ्चौ । दो पूर्व दिशायें । प्राञ्चः । सब पूर्व दिशायें ।
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सिद्धि - (१) भवान् । भवतु+सु । भवत्+सु । भव नुम् त्+सु । भवन्त्+सु । भवान्त्+सु । भवान्त्+०। भवान् । भवान् ।
यहां 'भवतु' शब्द से 'स्वौजस० ' ( ४ 1१/२) से सर्वनामस्थान- संज्ञक 'सु' प्रत्यय है। इस सूत्र से इस 'सु' प्रत्यय के परे होने पर उगित् 'भवतु' शब्द को नुम् आगम होता है । 'सान्तमहत: संयोगस्य' ( ६ |४|१०) से नकारान्त अङ्ग की उपधा को दीर्घ, 'हल्ङ्याब्भ्यो दीर्घात्' (६ |१/६७) से 'सु' का लोप और 'संयोगान्तस्य लोप:' (८/२/२३) से तकार का लोप होता है। ऐसे ही - भवन्तौ, भवन्तः ।
(२) श्रेयान् । प्रशस्य+ ईयसुन् । श्र+ईयस्। श्रेयस्+सु। श्रेयनुम्स्+सु । श्रेयन्स्+सु । श्रेयानस्+सु। श्रेयान्स्+०। श्रेयान् । श्रेयान् ।
यहां प्रथम प्रशस्य शब्द से 'द्विवचनविभज्योपपदे तरबीयसुनौ (५1३1५७) से 'ईयसुन्' प्रत्यय है । 'प्रशस्यस्य श्र:' (५/३/६०) से प्रशस्य के स्थान में 'श्र' आदेश और 'प्रकृत्यैकाच्' (६ । ४ । १६३) से प्रकृति भाव होने से टे:' ( ६ । ४ । १५५ ) से प्राप्त अग का टि-लोप (अ) नहीं होता है। 'ईयसुन्' प्रत्यय के उगित् होने से इसे इस सूत्र से 'नुम् ' आगम होता है । पूर्ववत् 'सु' का और संयोगान्त सकार का लोप होता है। ऐसे ही - श्रेयांसौ, श्रेयांसः ।
(३) पचन् । पच्+लट् । पच्+शतृ । पच्+शप्+अत् । पच्+अ+अत् । पचत्+सु । पचनुमृत्+सु । पचन्त्+सु । पचन्त्+० । पचन्० । पचन् ।
यहां 'डुपचं पाके' (भ्वा०3०) धातु से 'लट्' प्रत्यय और इसके स्थान में 'लट: शतृशानचा०' (३ । २ । १२४) से 'शतृ' आदेश है। इस 'शतृ' आदेश के उगित् होने से इस सूत्र से इसे 'नुम्' आगम होता है। 'सु' का और संयोगन्त तकार कालोप पूर्ववत् है।
(४) प्राङ् । प्र+अञ्च्+क्विन् । प्र+अच्+वि० । प्र+अच्+0 । प्र+अच्+सु । प्र+अनुम्च्+सु । प्र+अन्च्+स् । प्र+अन्च्+0। प्र+अन्ο। प्र+अङ् । प्राङ् ।
यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'अञ्चु गतौं' (भ्वा०प०) धातु से क्विन्' प्रत्यय है। वैरपृक्तस्य' ( ६ |१| ६५ ) से वि' का सर्वहारी लोप होता है। इस सूत्र से 'अच्' को 'नुम्' आगम होता है । 'सु' और संयोगान्त चकार का पूर्ववत् लोप होता है । क्विन् प्रत्ययस्य कु:' (८/२/६२) से नकार को कुत्व ङकार होता है। ऐसे ही - प्राञ्चौ, प्राञ्चः ।
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