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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७६७ सिद्धि-(१) गार्ग्यस्तत्र। यहां गाये शब्द 'गर्गादिभ्यो यञ् (४।१।१०५) से यञ्-प्रत्ययान्त नित्यादिनित्यम्' (६।१।१९४) से आधुदात्त और अनुदात्तं पदमेकवर्जम् (६।१।१५५) से अनुदात्त होकर अन्तानुदात्त है। तत्र' शब्द में तत्' शब्द से सप्तम्यास्त्रल' (५।३ ।१०) से 'बल्' प्रत्यय है, अत: प्रत्यय के लित् होने से 'लिति' (६।१।१९०) से आधुदात्त है। इस सूत्र से तत्र' का उदात्त स्वर परे होने पर गार्ग्य के अनुदात्त स्वर को स्वरित आदेश का प्रतिषेध होता है। उदात्तादनुदात्तस्य स्वरित:' (८।४।६५) से स्वरित आदेश प्राप्त था। अत: उसका प्रतिषेध किया गया है। ऐसे ही-वात्स्यस्तत्र।
(२) गार्ग्य: क्व । यहां क्व' में किम्' शब्द से किमोऽत्' (५।३।१२) से 'अत्' प्रत्यय है। 'कुतिहो:' (७।२।१०४) से 'किम्' को 'कु' आदेश है। 'अत्' प्रत्यय के तित् होने से यह तित् स्वरितम्' (६।१।१८५) से स्वरित है। इस सूत्र से स्वरित क्व' शब्द के परे रहने पर गार्ग्य के अनुदात्त स्वर को स्वरित आदेश का प्रतिषेध होता है। ऐसे ही-वात्स्य: क्व।
विशेष: (१) महर्षि पतञ्जलि आदि आचार्यों का मत है कि पाणिनि मुनि ने अष्टाध्यायी के प्रारम्भ में वृद्धिरादैच् (१।१।१) सूत्र में संज्ञी से पूर्व संज्ञावाची वृद्धि शब्द का प्रयोग पाठकों की मङ्गल कामना से किया है कि इस शास्त्र के अध्येता सदा बढ़ते रहें और इस सूत्र में भी परवाची 'उदय' शब्द का प्रयोग मङ्गल भावना से किया गया है कि इस शास्त्र के अध्यापक और अध्येता जनों का सदा उदय होता रहे, वे कभी समाप्त न हों।
(२) गार्ग्य, काश्यप और गालव आचार्यों का नाम-कीर्तन उनके सम्मान के लिये किया गया है। संवृतादेशः
___(२६) अ अ इति।६७। , प०वि०-अ अव्ययपदम् (षष्ठ्य र्थे), अ अव्ययपदम्, इति अव्ययपदम्। अनु०-संहितायामित्यनुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् अ अ इति । अर्थ:-संहितायां विषये विवृताकारस्य स्थाने संवृताकारादेशो भवति ।
एकोऽत्र विवृतः, अपरश्च संवृतः। तत्र विवतस्य संवृतः क्रियते। विवृतोऽकार: संवृतो भवतीत्यर्थः ।
उदा०-वृक्षः । प्लक्षः।
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