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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आर्यभाषाअर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अ) विवृत अकार के स्थान में (अ) संवृत अकार आदेश होता है (इति) ऐसा जानें।
उदा०-वृक्षः । पेड़। प्लक्ष: । पिलखण।
सिद्धि-वृक्षः । पाणिनीय शिक्षा में कहा गया है कि विवृतकरणा: स्वरा:' (पा०शि० ३।८) अर्थात् अकारादि स्वरों का विवृत प्रयत्न है किन्तु संवृतस्त्कारः' (पा०शि० ३।९) से केवल अकार का संवृत प्रयत्न है। ह्रस्व अकार और दीर्घ तथा प्लुत अकार का उक्त प्रयत्नभेद होने से इनकी तुल्यास्यप्रयत्नं सवर्णम् (१।१।९) से सवर्ण संज्ञा सिद्ध नहीं होती है, अत: पाणिनि मुनि ने 'अइउण्' (प्रत्याहार १) में अकार को विवृत प्रतिज्ञात किया था कि इस व्याकरणशास्त्रविषयक सवर्ण आदि कार्यों में यह 'अकार' विवृत ही समझना।
अब यह शब्द शास्त्र समाप्त होगया है। अत: पाणिनि मुनि ने उस विवृत प्रतिज्ञात अकार का संवृत आदेश प्रतिपादन किया है कि लोक में वृक्ष:' आदि शब्दों में अकार का संवृत ही उच्चारण होता है, विवृत नहीं। ऐसे ही-प्लक्ष: आदि।
{इति आदेशप्रकरणं संहिताप्रकरणं च समाप्तम्}
।। इति त्रिपादी समाप्ता।। ऋतुप्राणखनेत्राब्दे श्रावणे पुण्यपर्वणि ।
पूर्णिमायां गुरौ वारे ग्रन्थः पूर्णतां गतः ।। अर्थ:-यह ग्रन्थ श्रावण पूर्णिमा (श्रावणी उपाकर्म) संवत् २०५६ वि० बृहस्पतिवार को पूर्ण हुआ (२६ अगस्त १९९९ ई०)। इति हरयाणाप्रान्तीयरोहितकमण्डलानन्तर्गतबालन्दग्रामनिवासिनः श्रीमन्महाशयशिवदत्तार्यस्य प्रियपुत्रेण श्रीमतीरजकांदेवी सूनुना परिव्राजकाचार्याणां श्रीमद् ओमानन्दसरस्वतीस्वामिनां महाविदुषां पण्डितविश्वप्रियशास्त्रिणां च शिष्येण झज्जरगुरुकुलाधिगतविद्येन पण्डितसुदर्शनदेवाचार्येण विरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचनेऽष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः। सम्पूर्णश्चायं ग्रन्थः।।
|| इति षष्ठो भागः।।
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