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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः पर भी 'दा' धातु के आकार को तकार आदेश हो जाता है। 'अनचि च' (८।४।५८) से यर् तकार को द्विर्वचन करने पर पांच तकार हो जाते हैं-मरुत्त्त त्तम् । इस सूत्र से एक तकार का लोप हो जाने पर चार तकार, पुन: एक तकार का लोप हो जाने पर तीन तकार और पुन: एक तकार का लोप हो जाने पर दो तकार शेष रहते हैं-मरुत्तम् । हल् से उत्तर झर् तकार का सवर्ण झर् तकार की प्राप्ति रहने पर इस सूत्र की तीन बार प्रवृत्ति होती है। स्वरितादेशः
(२७) उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः।६५ । प०वि०-उदात्तात् ५ ।१ अनुदात्तस्य ६।१ स्वरित: १।१ । अनु०-संहितायाम् इत्यनुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् उदात्तादनुदात्तस्य स्वरितः।
अर्थ:-संहितायां विषये उदात्तात् परस्यानुदात्तस्य स्थाने, स्वरितादेशो भवति।
उदा०-गार्ग्य:, वात्स्य:, पचति, पठति।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उदात्तात्) उदात्त स्वर से उत्तरवर्ती (अनुदात्तस्य) अनुदात्त स्वर के स्थान में (स्वरित:) स्वरित आदेश होता है।
उदा०-गार्ग्य: । गर्ग का पौत्र । वात्स्यः । वत्स का पौत्र । पचति । वह पकाता है। पठति । वह पढ़ता है।
सिद्धि-(१) गाय:। यहां 'गर्ग' शब्द से 'गर्गादिभ्यो यज्ञ (४।१।१०५) से गोत्रापत्य अर्थ में यञ्' प्रत्यय है। यस्येति च' (६।४।१४८) से अकार का लोप और तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से आदिवृद्धि है। यञ्' प्रत्यय के जित् होने से नित्यादिनित्यम्' (६ ।१ ।१९१) से आधुदात्त है। 'अनुदात्तं पदमेकवर्जम्' (६।१।१५५) से यह अन्तानुदात्त होकर इस सूत्र से उदात्त से परवर्ती अनुदात्त स्वर को स्वरित आदेश होता है। ऐसे ही वत्स' शब्द से-वात्स्यः ।
(२) पर्चति । यहां 'डुपचष् पाके' (भ्वा०उ०) धातु से लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में तिप्' आदेश और कर्तरि शप्' (३।१।६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय है। तिप्' और 'शप्' प्रत्ययों के पित् होने से ये अनुदात्तौ सुपितौ' (३।१।४) से अनुदात्त हैं। पच्' धातु 'धातो:' (६।१।१५९) से अन्तोदात्त है। अत: इस सूत्र से 'पच्' धातु के उदात्त स्वर से परवर्ती शम्' प्रत्यय के अनुदात्त अकार को स्वरित आदेश होता है।
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