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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आदित्य्यः, इस स्थिति में वा०-यणो मयो द्वे भवत:' (८।४।४६) से यकार को द्वित्व होकर-आदित्य्य्यः । जब विकल्प-पक्ष में यकार को द्विवचन नहीं होगा तब इस सूत्र से एक यकार का लोप होकर-आदित्य: रूप बनता है। लोपादेशविकल्प:
(२६) झरो झरि सवर्णे।६४। प०वि०-झर: ६।१ झरि ७ १ सवर्णे ७।१। अनु०-संहितायाम्, अन्यतरस्याम्, हल:, लोप इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां हलो झर: सवर्णे झरि अन्यतरस्यां लोप:।
अर्थ:-संहितायां विषये हल: परस्य झर:, सवर्णे झरि परतो विकल्पेन लोपो भवति।
उदा०-प्रत्तम्, प्रत्त्तम् । अवत्तम्, अवत्त्तम्। मरुत्तम्, मरुत्त्तम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (हल:) हल् वर्ण से परवर्ती (झर:) झर् वर्ण का (सवर्णे) तुल्य प्रयत्नवाला (झरि) झर् वर्ण परे रहने पर (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (लोप:) लोप होता है।
उदा०-प्रत्तम्, प्रत्त्तम् । उसने प्रदान किया। अवत्तम्, अवतत्तम् । उसने अवदान किया। मरुत्तम्, मरुत्त्तम् । मरुत् देवताओं के द्वारा दान किया हुआ।
सिद्धि-प्रत्तम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'डुदाञ् दाने (जु०उ०) धातु से 'क्त' प्रत्यय है। 'अच: उपसर्गात्तः' (७।४।४७) स अजन्त 'प्र' उपसर्ग से उत्तरवर्ती 'दा' धातु के आकार को तकार आदेश है। खरि च' (८।४।५४) से दकार को चर् तकार आदेश होता है। इस सूत्र से हल तकार से परवर्ती झर् तकार का सवर्ण झर्तकार परे होने पर लोप होता है। विकल्प-पक्ष में लोप नहीं है-प्रत्त्तम्। इस स्थिति में 'अनचि च (८।४।५८) से यर् तकार को द्विर्वचन करने पर-प्रत्तत्त्त म् । इस सूत्र से एक तकार का लोप हो जाने पर-प्रत्त्त म् । पुन: इसी सूत्र से एक तकार का लोप हो जाने पर-प्रत्तम् रूप बनता है।
(२) मरुत्तम् । मरुत्+दा+क्त। मरुत्+क्त्+त। मरुत्+त्त्+त। मरुत्त्त्त +सु। मरुत्त्त्त म्।
यहां मरुत्-उपपद 'दा' धातु से पूर्ववत् 'क्त' प्रत्यय है। वा०- मरुच्छब्दस्य चोपसङ्ख्यानम् (१।४।५८) से मरुत्' शब्द की उपसर्ग संज्ञा की गई है, अत: उपसर्ग संज्ञा के विधान सामर्थ्य से अच उपसर्गात्तः' (७।४।४७) से 'मरुत्' के अजन्त न होने
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