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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः लोपादेशः
(२५) हलो यमा यमि लोपः ।६३ । प०वि०-हल: ५।१ यमाम् ६।३ यमि ७१ लोपः। अनु०-संहितायाम्, अन्यतरस्यामिति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायां हलो यमां यमि अन्यतरस्यां लोपः।
अर्थ:-संहितायां विषये हल: परेषां यमां यमि परतो विकल्पेन लोपो भवति।
उदा०-शय्या, शय्थ्या। आदित्य:, आदित्य्य: । आदित्य:, आदित्य्यः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (हल:) हल् वर्ण से परवर्ती (यमाम्) यम् वर्णों का (यमि) यम् वर्ण परे रहने पर (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (लोप:) लोप होता है।
उदा०-शय्या, शय्या । सेज। आदित्यः, आदित्य्यः । सूर्य: । आदित्य:, आदित्य्य्यः । सूर्यः।
सिद्धि-(१) शय्या। शीड्+क्यप् । शी+य। श्अयड्+य। शय्+य। शय्य+टाप् । शय्या।
यहां शीङ् स्वप्ने (अदा०प०) धातु से संज्ञायां समजनिषद०' (३।३।९९) से क्यप्' प्रत्यय है। 'अयङ् यि क्डिति' (७।४।२२) से धातु को अयङ् आदेश होता है। स्त्रीत्व-विवक्षा में अजाद्यतष्टाप् (४।१।४) से टाप्' प्रत्यय है। 'अनचि च' (८।४।४६) से यर् (य) को द्वित्व होकर 'शय्य्या' प्रयोग बनता है। इस सूत्र से हल् यकार से परवर्ती यम् यकार का यम् यकार वर्ण परे होने पर लोप हो जाता है। विकल्प पक्ष में यकार का लोप नहीं है, यहां तीन यकार का श्रवण होता है-शय्या।
(२) आदित्यः । अदिति+ण्य । अदिति+य। आदित्+य। आदित्य+सु। आदित्यः ।
यहां 'अदिति' शब्द से 'दित्यदित्यादित्यपत्युत्तरपदाण्ण्यः' (४।१।८५) से 'ण्य' प्रत्यय है। यस्येति च (६।४।१४८) से इकार का लोप और तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से आदिवृद्धि होती है। आदित्य:, इस स्थिति में वा०-यणो मयो द्वे भवतः' (८।४।४६) से मय तकार से परवर्ती यण यकार को द्वित्व होता है-आदित्य्यः । इस प्रकार यहां एक यकार अथवा दो यकारों का श्रवण होता है।
(३) आदित्य्यः । यहां पूर्वोक्त आदित्य' शब्द से सास्य देवता' (४।१।८५) से देवता अर्थ में यथाविहित ‘ण्य' प्रत्यय है-आदित्य+ण्य। आदित्य्+य। आदित्य्य+सु।
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