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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः उदा०-(स्था) उत्थाता । उठनेवाला। उत्थितुम् । उठने के लिये। उत्थितव्यम् । उठना चाहिये। (स्तम्भ) उत्तम्भिता। रोकनेवाला। उत्तम्भितम् । रोकने के लिये। उत्तम्भितव्यम् । रोकना चाहिये।
सिद्धि-(१) उत्थाता । उत्+स्थाता। उत्+थ् थाता। उत्+०थाता। उत्+थाता। उत्थाता।
यहां उत्-उपसर्गपूर्वक छा गतिनिवृत्तौ (भ्वा०प०) धातु से 'वुल्तृचौं (३।१।१३३) से तुच्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'आदे: परस्य' (१११५३) के नियम से उत्-उपसर्ग से परवर्ती स्थाता' के सकार को पूर्वसवर्ण आदेश होता है। अत: अघोष तथा महाप्राण प्रयत्न वाले सकार को उसका अन्तरतम (सदृशतम) अर्थात् उसी प्रयत्नवाला थकार पूर्वसवर्ण होता है। झरो झरि सवर्णे (८।४।६४) से पूर्ववर्ती थकार का विकल्प से लोप होता है। विकल्प-पक्ष में थकार का लोप नहीं होता है-उत्थ्थाता। ___कई आचार्य बाह्य प्रयत्न के सादृश्य को न मानकर सकार को पूर्वसवर्ण तकार आदेश करते हैं। उनके मत में उत्थाता अथवा उत्त्थाता प्रयोग बनता है।
तुमुन् प्रत्यय में-उत्थातुम् । तव्यत् प्रत्यय में-उत्थातव्यम् ।
(२) उत्तम्भिता । उत्-उपसर्ग स्तम्भु प्रतिबन्धे' (प०सौत्रधातु) से पूर्ववत् तृच्” प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। तुमुन् प्रत्यय में-उत्तम्भितुम् । तव्यत् प्रत्यय में-उत्तम्भितव्यम्। पूर्वसवर्णादेशविकल्प:
(२३) झयो होऽन्यतरस्याम् ।६१। प०वि०-झय: ५।१ ह: ६।१ अन्यतरस्याम् अव्ययपदम्। अनु०-संहितायाम्, सवर्णः, पूर्वस्य इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायां झयो होऽन्यतरस्यां पूर्वस्य सवर्ण: ।
अर्थ:-संहितायां विषये झय: परस्य हकारस्य स्थाने, विकल्पेन पूर्वसवणदिशो भवति।
उदा०-प्राग् हसति, प्राग्घसति। मधुलिड् हसति, मधुलिड्ढसति । अग्निचिद् हसति, अग्निचिद्धसति। त्रिष्टुब् हसति, त्रिष्टुब्भसति ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (झय:) झय् वर्ण से परवर्ती (ह:) हकार के स्थान में (अन्यतरस्याम्) विकल्प से (पूर्वस्य सवर्ण:) पूर्व सवर्ण आदेश होता है।
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