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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषा: अर्थ - ( संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (तो) तवर्ग के स्थान में (लि) लकार परे होने पर (परसवर्ण:) परसवर्ण आदेश होता है।
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उदा०-अग्निचिल्लुनाति । अग्निचित् काटता है। सोमसुल्लुनाति । सोमसुत् काटता है । भवाल्लुनाति। आप काटते हो। महालुनाति । महान् पुरुष काटता है।
सिद्धि - (१) अग्निचिल्लुनाति । यहां इस सूत्र से अग्निचित् के तवर्ग तकार को लुनाति का लकार वर्ण परे रहने पर परसवर्ण लकार आदेश होता है। ऐसे ही - सोमसुत् + लुनाति=सोमसुल्लुनाति ।
(२) भवाल्लुनाति । यहां इस सूत्र से भवान् के तवर्ग नकार को लुनाति का लकार वर्ण परे होने पर परसवर्ण अनुनासिक लकार आदेश होता है । 'अन्तस्था द्विप्रभेदाः सानुनासिका निरनुनाकितिश्च' (पा०शि० ६ (८) से अन्तस्थ ( य व र ल ) वर्ण सानुनासिक और निरनुनासिक भेद से दो प्रकार के हैं । अतः यहां सानुनासिक तवर्ग कार को सानुनासिक परसवर्ण लकार (लूँ) आदेश होता है । 'स्थानेऽन्तरतमः ' ( १/१/४९) से किसी के स्थान में विधीयमान आदेश अन्तरतम (सदृशतम) ही किया जाता है। ऐसे ही महान् + लुनाति = महाल्लुनाति ।
पूर्वसवर्णादेश:
(२२) उदः स्थास्तम्भोः पूर्वस्य । ६० ।
प०वि०-उद: ५।१ स्था-स्तम्भो : ६ । २ पूर्वस्य ६।१ ।
स०-स्थाश्च स्तम्भ् च तौ स्थास्तम्भौ, तयो:-स्थास्तम्भो: (इतरेतर
योगद्वन्द्वः ) ।
अनु०-संहितायाम्, सवर्ण इति चानुवर्तते ।
अन्वयः -संहितायाम् उद: स्थास्तम्भोः पूर्वस्य सवर्णः । अर्थ:-संहितायां विषये उदः परयोः स्थास्तम्भोर्धात्वोः पूर्वसवणदिशो
भवति ।
उदा०-(स्था) उत्थाता, उत्थितुम्, उत्थितव्यम् । (स्तम्भ) उत्तम्भिता, उत्तम्भितुम्, उत्तम्भितव्यम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (उद: ) उत्-उपसर्ग से परवर्ती (स्थास्तम्भोः) स्था और स्तम्भ धातुओं का (पूर्वस्य सवर्ण:) पूर्व सवर्ण आदेश होता है ।
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