________________
पाणिनीय-अष्टाध्यायी- प्रवचनम्
उदा०- -(भिद्) भेत्ता । फाड़नेवाला । भेत्तुम् । फाड़ने के लिये । भेत्तव्यम् । फाड़ना चाहिये। (युध्) स युयत्सते। वह प्रहार करना चाहता है । (रभ्) स आरिप्सते । वह आरम्भ करना चाहता है। (लभ) स आलिप्सते । वह प्राप्त करना चाहता है ।
सिद्धि - (१) भेत्ता । यहां 'भिदिर् विदारणे' (रुधा०प०) धातु से 'वुल्तृचौ' (३।१।१३३) से 'तृच्' प्रत्यय है । 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७/३/८६ ) से 'भिद्' धातु को लघूपधलक्षण गुण होता है। इस सूत्र से झल् दकार को खर् तकार परे होने पर चर् तकार आदेश होता है। तुमुन् प्रत्यय में- भेत्तुम् । तव्यत् प्रत्यय में- भेत्तव्यम् ।
७५६
(२) युयुत्सते। यहां युध सम्प्रहारें (दि०आ०) धातु से 'धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छाया वा' (३ 1१ 1७) से सन्' प्रत्यय है । 'सन्यङो:' ( ६ । १ 1९ ) से धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से झल् धकार को, खर् सकार परे होने पर, चर् तकार आदेश होता है।
(३) आरिप्सते। यहां आङ्-उपसर्गपूर्वक 'रभ राभस्ये' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् सन्' प्रत्यय और धातु को द्विर्वचन है । 'अत्र लोपो ऽभ्यासस्य' (७।४/५८) से अभ्यास का लोप और 'सनि मीमाघु०' (७।४।५४) से 'रभ्' के अच् (अ) के स्थान में 'इस्' आदेश है । 'स्को: संयोगाद्योरन्ते च (८।२ । २९) से 'इस्' के सकार का लोप है। इस सूत्र से झल् भकार को, खर् सकार परे होने पर, चर् पकार आदेश होता है। (४) आलिप्सते। आङ् - उपसर्गपूर्वक डुलभष् प्राप्तौ
(भ्वा०आ०) धातु से
पूर्ववत् ।
चरादेशविकल्पः
(१७) वाऽवसाने । ५५ ।
प०वि०-वा अव्ययपदम्, अवसाने ७ । १ ।
अनु०-संहितायाम्, झलाम्, चर् इति चानुवर्तते । अन्वयः -संहितायाम् अवसाने झलां वा चर् । अर्थ:-संहितायां विषयेऽवसाने वर्तमानां झलां स्थाने विकल्पेन चरादेशो
भवति ।
उदा०-वाच्-वाक्, वाग् । त्वच्- त्वक् त्वग् । श्वलिड् - श्वलिट्, श्वलिड् । त्रिष्टुभ्-त्रिष्टुप् त्रिष्टुब् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि- विषय में (अवसाने) विराम में विद्यमान (झलाम्) झल् वर्णों के स्थान में (वा) विकल्प से (चर्) चर् आदेश होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org