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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७५७ उदा०-वाच-वाक्, वाग् । वाणी। त्वच-त्वक, त्वम् । त्वचा (खाल)। श्वलिड्-श्वलिट्, श्वलिड्। कुत्तों को चाटनेवाला (घोरी)। त्रिष्टुभ्-त्रिष्टुप, त्रिष्टुम् । एक वैदिक छन्द का नाम है।
सिद्धि-वाक् । यहां वाच्' शब्द के चकार को चो: कुः' (८।२।३०) से कवर्ग ककार आदेश है। 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से ककार को जश् गकार आदेश होता है। इस सूत्र से गकार को चर् ककार आदेश होता है और विकल्प-पक्ष में पूर्वोक्त गकार आदेश भी बना रहता है-वाक् । ऐसे ही-त्वक्, त्वग् आदि। यहां विरामोऽवसानम् (१।४।१०९) से अवसान-संज्ञा है। चरादेशविकल्पः
(१८) अणोऽप्रगृह्यस्यानुनासिकः ।५६ । प०वि०-अण: ६।१ अप्रगृह्यस्य ६।१ अनुनासिक: १।१। स०-न प्रगृह्यमिति अप्रगृह्यम्, तस्य-अप्रगृह्यस्य (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-संहितायाम्, वा, अवसाने इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायाम् अवसानेऽप्रगृह्यस्याणो वाऽनुनासिकः ।
अर्थ:-संहितायां विषयेऽवसाने वर्तमानस्य प्रगृह्यवर्जितस्याणो विकल्पेनानुनासिकादेशो भवति।
उदा०-दधि, दधैिं । मधु, मधु। कुमारी, कुमारौं।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (अवसाने) विराम में विद्यमान (अप्रगृह्यस्य) प्रगृह्य संज्ञा से भिन्न (अणः) अण् वर्ण को (वा) विकल्प से (अनुनासिक:) अनुनासिक आदेश होता है।
उदा०-दधि, दधैिं । दही। मधु, मधु। शहद । कुमारी, कुमारी। कन्या।
सिद्धि-दधि । यहां इस सूत्र से दधि के अण (इ) वर्ण को अनुनासिक आदेश नहीं है। विकल्प-पक्ष में अनुनासिक आदेश है-दधैिं । ऐसे ही-मधु, मधु । यहां विरामोऽवसानम् (१।४।१०९) से अवसान-संज्ञा है। परसवर्णादेशः
(१६) अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः ।५७ । प०वि०-अनुस्वारस्य ६।१ ययि ७१ परसवर्ण: ११ । स०-परस्य सवर्ण इति परसवर्णः (षष्ठीतत्पुरुषः) । अनु०-संहितायामित्यनुवर्तते।
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