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________________ ७५२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् द्विर्वचनप्रतिषेधः (१३) दीर्घादाचार्याणाम् ॥५१॥ प०वि०-दीर्घात् ५ ।१ आचार्याणाम् ६।३ । अनु०-संहितायाम्, द्वे, न इति चानुवर्तते। अन्वयः-संहितायां दीर्घाद् आचार्याणां द्वे न। अर्थ:-संहितायां विषये दीर्घात् परस्य वर्णस्याचार्याणां मतेन द्वे न भवत:। उदा०-दात्रम्, पात्रम्, सूत्रम्, मूत्रम् । आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (दीर्घात्) दीर्घ से परवर्ती वर्ण को (आचार्याणाम्) पाणिनि मुनि के आचार्य (गुरुवरवर्ष) के मत में (द) द्विवचन (न) नहीं होता है। उदा०-दात्रम् । दाती। पात्रम् । बर्तन । सूत्रम् । सूत । मूत्रम् । पेशाब। सिद्धि-दात्रम् । यहां दीर्घ आकार से परवर्ती यर् तकार को अनच् (हल) रेफ वर्ण परे होने पर पाणिनि मुनि के आचार्यप्रवरवर्ष के मत में द्वित्व नहीं होता है। ऐसे ही-पात्रम्, आदि। विशेषः पाणिनीय अष्टाध्यायी में 'आचार्याणाम्' इस पद से पाणिनि मुनि के गुरुवर (वर्ष आचार्य) का ग्रहण किया जाता है। बहुवचन में निर्देश आदर का द्योतक है-आदरार्थं बहुवचनम्। जशादेश: (१४) झलां जश् झशि।५२। प०वि०-झलाम् ६।३ जश् १।१ झशि ७।१। अनु०-संहितायामित्यनुवर्तते। अन्वय:-संहितायां झलां झशि जश् । अर्थ:-संहितायां विषये झलां स्थाने झशि परतो जशादेशो भवति । उदा०-लब्धा, लब्धुम्, लब्धव्यम् । दोग्धा, दोग्धुम्, दोग्धव्यम् । बोद्धा, बोधुम्, बोद्धव्यम्। आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (झलाम्) झल् वर्गों के स्थान में (झश्) झश् वर्ण परे रहने पर (जश्) जश् आदेश होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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