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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
अनु०-संहितायाम्, द्वे, न इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-संहितायां त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य द्वे न। अर्थ:-संहितायां विषये त्रिप्रभृतिषु संयुक्तेषु वर्णेषु परतः, शाकटायन
स्याचार्यस्य मतेन द्वे न भवतः ।
उदा० - इन्द्र:, चन्द्र:, उष्ट्र:, राष्ट्रम्, भ्राष्ट्रम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (त्रिप्रभृतिषु) तीन- आदि संयुक्त वर्णे में (शाकटायनस्य ) शाकटायन आचार्य के मत में (द्व) द्विर्वचन (न) नहीं होता है।
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उदा०-इन्द्रः । राजा । चन्द्रः । चांद । उष्ट्रः । ऊंट । राष्ट्रम् । राज्य । भ्राष्ट्रम् । भाड़ । सिद्धि-इन्द्रः। यहां न् द् र् ये तीन संयुक्त वर्ण हैं। इस सूत्र से इन संयुक्त वर्णों में द्वित्व का प्रतिषेध होता है । शाकटायन का ग्रहण पूजा के लिये किया गया है, अतः पाणिनि मुनि और शाकटायन आचार्य का इस विषय में समान मत है। ऐसे ही - चन्द्र: आदि ।
यहां ‘अनचि च' (८ ।४ । ४६ ) से द्वित्व प्राप्त था, अत: इस सूत्र से प्रतिषेध किया
गया है ।
द्विर्वचनप्रतिषेधः
(१२) सर्वत्र शाकल्यस्य । ५० । प०वि०- सर्वत्र अव्ययपदम्, शाकल्यस्य ६।१। अनु०-संहितायाम्, द्वे, न इति चानुवर्तते । अन्वयः - संहितायां सर्वत्र शाकल्यस्य द्वे न । अर्थ:-संहितायां विषये सर्वत्र शाकल्यस्याचार्यस्य मतेन द्वे न भवतः । उदा० - अर्क:, मर्क:, आर्य, ब्रह्मा, अपहनुते ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में ( सर्वत्र ) सब स्थानों में (शाकल्यस्य) शाकल्य आचार्य के मत में (द्व) द्विर्वचन (न) नहीं होता है।
उदा० - अर्क: । सूर्य। मर्क: । बन्दर । आर्यः । ईश्वरपुत्र । ब्रह्मा । प्रजापति। अपहनुते । वह हटाता है ।
सिद्धि-अर्क:। यहां अच् वर्ण से परवर्ती रेफ और उससे उत्तरवर्ती ककार को इस सूत्र से शाकल्य आचार्य के मत में द्वित्व नहीं होता है। 'अचो रहाभ्यां द्वे' (८/४/४५) से द्विर्वचन प्राप्त था । अतः इस सूत्र से शाकल्य आचार्य के मत में प्रतिषेध किया गया है।
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