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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-पुत्रादिनी त्वमसि पापे।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (पुत्रस्य) पुत्र शब्द को (आदिनी) आदिनी शब्द परे रहने पर (द्व) द्विर्वचन (न) नहीं होता है, (आक्रोशे) यदि वहां निन्दा अर्थ की अभिव्यक्ति हो।
उदा०-पुत्रादिनी त्वमसि पापे। हे पापिनी ! तू पुत्रों को खानेवाली (डाण) है।
सिद्धि-पुत्रादिनी। यहां 'पुत्र' शब्द में अच् वर्ण (उ) से परवर्ती यर् वर्ण (त्) को अनच वर्ण (र) परे रहते द्विवचन नहीं होता है। 'अनचि च' (८।४।४६) से द्विवचन प्राप्त था। अत: इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है।
पुत्रादिनी' शब्द में पुत्र-उपपद 'अद भक्षणे (अदा०प०) धातु से सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्ये' (३।२।७८) से तच्छील अर्थ में णिनि' प्रत्यय है। स्त्रीत्व-विवक्षा में 'ऋन्नेभ्यो डीप' (४।१।५) से 'डीप्' प्रत्यय है। द्विर्वचनप्रतिषेधः
(१०) शरोऽचि।४८। प०वि०-शर: ६।१ अचि ७।१। अनु०-संहितायाम्, द्वे, न इति चानुवर्तते। अन्वयः-संहितायां शरोऽचि द्वे न। अर्थ:-संहितायां विषये शरोऽचि परतो वे न भवत: । उदा०-आदर्शः, अक्षदर्श: । कर्षति, वर्षति।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (शर:) शर् वर्ण को (अचि) अच् वर्ण परे रहने पर द्वि) द्विर्वचन (न) नहीं होता है।
उदा०-आदर्श: । दर्पण (शीशा)। अक्षदर्श: । पासे को देखनेवाला। कर्षति । वह बैंचता है। वर्षति । वह बरसता है।
सिद्धि-आदर्श: । यहां इस सूत्र से अच् वर्ण (अ) परक शर् वर्ण (श्) को द्वित्व का प्रतिषेध होता है। अचो रहाभ्यां द्वे (८१४।४५) से द्विर्वचन प्राप्त था, अत: इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। ऐसे ही-अक्षदर्श:, कर्षति, वर्षति । द्विर्वचनप्रतिषेधः
(११) त्रिप्रभृतिषु शाकटायनस्य।४६ । प०वि०-त्रिप्रभृतिषु ७।३ शाकटायनस्य ६ ।१ । स०-त्रय: प्रभृतिर्येषां ते त्रिप्रभृतयः, तेषु-त्रिप्रभृतिषु (बहुव्रीहिः)।
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