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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७३५ धातुः | उपसर्ग: । शब्दरूपम् भाषार्थ: ३. पू । प्र प्रपवनम् अति पवित्र करना।
परिपवनम् सर्वत: पवित्र करना। . कमि
प्रकमनम् अति कामना करना।
परि परिकमनम् सर्वत: कामना करना। ५. गमि प्र प्रगमनम् प्रस्थान करना।
परि परिगमनम् सर्वत्र गमन करना। ६. प्यायी
प्रप्यायनम् अति बढ़ना।
परिप्यायनम् । सर्वत: बढ़ना। ७. वेप । प्र । प्रदेपनम् अति कांपना।
परि । परिवेपनम् । सर्वत: कांपना। आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रात्) रेफ से परवर्ती (भा०) भा, भू, पू, कमि, गमि, प्यायी, वेप इन धातुओं से विहित (अच:) अच् से उत्तरवर्ती (कृति) कृत्-प्रत्यय के (न:) नकार के स्थान में (ण:) णकार आदेश (न) नहीं होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) प्रभानम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'भा दीप्तौं' (अदा०प०) धातु से ल्युट् च (३।३ ।११५) से भाव अर्थ में 'ल्युट्' प्रत्यय है। युवोरनाकौ' (७।१।१) से यु' को 'अन' आदेश है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती, 'अन' कृत्-प्रत्यय के नकार को णकार आदेश का प्रतिषेध होता है। परि-उपसर्ग में परिभानम् ।
(२) प्रभवनम् । प्र-उपसर्गपूर्वक 'भू सत्तायाम्' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । परि-उपसर्ग में-परिभवनम् ।
(३) प्रपवनम् । प्र-उपसर्गपूर्वक पूज पवने' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् । परि-उपसर्ग में-परिपवनम् ।।
(४) प्रकमनम् । प्र-उपसर्गपूर्वक 'कमु कान्तौ' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् । परि-उपसर्ग में-परिकमनम् ।
(५) प्रगमनम्। प्र-उपसर्गपूर्वक 'गम्लु गतौ' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् । परि-उपसर्ग में-परिकमनम्।
(६) प्रप्यायनम् । प्र-उपसर्गपूर्वक 'ओप्यायी वृद्धौ' (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् । परि-उपसर्ग में-परिप्यायनम् ।
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