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पाणिनीय-अष्टाध्यायी प्रवचनम्
(७) प्रवेपनम् । प्र - उपसर्गपूर्वक 'टुवेट कम्पने' (भ्वा०आ०) धातु पूर्ववत् । परि-उपसर्ग में परिवेपनम् ।
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यहां सर्वत्र 'कृत्यचः' (८I४ (२८) से णकार आदेश प्राप्त था । अतः इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है।
णकारादेशप्रतिषेधः
(३४) षात् पदान्तात् । ३४ ।
प०वि० - षात् ५ ।१ पदान्तात् ५ । १ ।
सo - पदेऽन्त इति पदान्तः, तस्मात् पदान्तात् (सप्तमीतत्पुरुषः) । अनु०-संहितायाम्, न:, णः, न इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-संहितायां पदान्तात् षाद् नो णो न ।
अर्थ:-संहितायां विषये पदान्तात् षकारात् परस्य, नकारस्य स्थाने णकारादेशो न भवति ।
उदा०-निष्पानम्, दुष्पानम्, सर्पिष्पानम्, यजुष्पानम् ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (पदान्तात् ) पद परे होने पर जो अन्तिम (षात्) षकार है उससे परवर्ती (नः) नकार के स्थान में (णः) णकार आदेश (न) नहीं होता है।
उदा०
० - निष्पानम् । निर्धारित पानविशेष | दुष्पानम् । सुरा आदि निन्दित पान । सर्पिष्पानम् । घृत पान। यजुष्पानम् । याजुष मन्त्रों से सोमपान ।
सिद्धि-निष्पानम् । यहां निस्-उपसर्गपूर्वक 'पा पाने' (भ्वा०प०) धातु से 'ल्युट् च' (३1३ 1११५ ) से भाव अर्थ में 'ल्युट्' प्रत्यय है। निस्' के सकार को 'ससजुषो रु: ' (८/२/६६ ) से 'ह' आदेश, 'खरवसानयोर्विसर्जनीय:' (८ | ३ |१५) से रेफ को विसर्जनीय और 'इदुपधस्य चाप्रत्ययस्य' ( ८ | ३ | ४१ ) से विसर्जनीय को षकार आदेश है। इस 'निष्' के पदान्त से परवर्ती 'पान' के नकार को इस सूत्र से णकार आदेश का प्रतिषेध होता है। 'पानम्' पद के परे होने पर निष्' का षकार पदान्त है - पदेऽन्तः पदान्तः । 'कृत्यच: ' (८/४/२८) से णकार आदेश प्राप्त था । अतः इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। दुस्-उपसर्ग में- दुष्पानम् ।
(२) सर्पिष्यानम् । यहां सर्पिस् और पान शब्दों का षष्ठीतत्पुरुष समास हैसर्पिषः पानमिति सर्पिष्पानम् । 'नित्यं समासेऽनुत्तरपदस्थस्य' (८।३।४५ ) से 'सर्पिः’ के विसर्जनीय को नित्य षकार आदेश है । 'वा भावकरणयो:' (८ ।४ । १०) से भावलक्षण में णकार आदेश की प्राप्ति थी । अत: इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है।
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