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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७३३ उदा०-प्रे-खणम् । प्रगति करना। परेवणम् । दूर हटना। प्रेङ्गणम् । प्रगति करना। परेङ्गणम् । दूर हटना। प्रोम्भणम् । पूरा भरना। परोम्भणम् । खाली करना।
सिद्धि-प्रेड्वणम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक इखि गतौं' (भ्विा०प०) धातु से ल्युट् च' (३।३।११५) से भाव अर्थ में ल्युट्' प्रत्यय है। 'इदितो नुम् धातो:' (७।१।५८) से धातु को नुम्' आगम है। युवोरनाकौं' (७।१।१) से 'यु' को 'अन' आदेश है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती, नुम्-आगम वाले, इजादि और हलन्त 'ईङ्' धातु से विहित 'अन' इस कृत्-प्रत्यय के नकार को णकार आदेश होता है। परा-उपसर्ग में-परेखणम्।
(२) प्रेङ्गणम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'इगि गतौं' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'ल्युट्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। परा-उपसर्ग में-परेङ्गणम् ।
(३) प्रोम्भणम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक उम्भ पूरणे (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् ल्युट्' प्रत्यय है। सूत्र-कार्य पूर्ववत् है। परा-उपसर्ग में-परोम्भणम् । उम्भ' धातु पाणिनीय धातुपाठ में सनुम्' ही पठित है। णकारादेशविकल्पः
(३२) वा निंसनिक्षनिन्दाम्।३२। प०वि०-वा अव्ययपदम्, निस-निक्ष-निन्दाम् ६।३ ।
स०-निंसश्च निक्षश्च निन्द् च ते निसनिक्षनिन्दः, तेषाम्निसनिक्षनिन्दाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)।।
अनु०-संहितायाम्, रात्, न:, ण:, उपसर्गादिति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् उपसर्गस्य राद् निंसनिक्षनिन्दां नो वा णः ।
अर्थ:-संहितायां विषये उपसर्गस्य रेफात् परेषां, निंसनिक्षनिन्दां धातूनां विकल्पेन णकारादेशो भवति। __उदा०-(निस्) प्रणिंसनम्, प्रनिंसनम्। (निक्ष) प्रणिक्षणम्, प्रनिक्षणम् । (निन्द्) प्रणिन्दनम्, प्रनिन्दनम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रात्) रेफ से परवर्ती (निसनिक्षनिन्दाम्) निस, निक्ष, निन्द इन धातुओं के (न:) नकार के स्थान में (विभाषा) विकल्प से (ण:) णकार आदेश होता है। ... उदा०-(निस) प्रणिंसनम्, प्रनिसनम् । अति चुम्बन करना। (निक्ष्) प्रणिक्षणम्, प्रनिक्षणम् । अति चुम्बन करना। (निन्द) प्रणिन्दनम्, प्रनिन्दनम् । अति निन्दा करना।
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