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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-प्रकोपणम्, प्रकोपनम् । अति क्रोध करना। परिकोपणम्, परिकोपनम् । सर्वत: क्रोध करना।
सिद्धि-प्रकोपणम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'कुप क्रोधे (दि०प०) धातु से ल्युट् च' (३।३।११५) से भाव अर्थ में ल्युट्' प्रत्यय है। युवोरनाकौ' (७।१।१) से 'यु' को 'अन' आदेश है। 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७।३।८६) से कुप्' धातु को लघूपधलक्षण गुण होता है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती, इच् (ओ) उपधावाले हलादि कुप्' धातु से भी उत्तरवर्ती, अच् पूर्ववाले 'अन' कृत्-प्रत्यय के नकार को णकार आदेश होता है। विकल्प-पक्ष में णकार आदेश नहीं है-प्रकोपनम् । परि-उपसर्ग में-परिकोपणम्, परिकोपनम् ।
कृत्यचः' (८।४।२८) से नित्य णकार आदेश प्राप्त था, अत: यह विकल्प-विधान किया गया है। णकारादेशः
(३१) इजादेः सनुमः ।३१। प०वि०-इजादे: ५।१ सनुम: ५।१।
स०-इज् आदिर्यस्य स इजादि:, तस्मात्-इजादे: (बहुव्रीहिः) । नुमा सह वर्तते इति सनुम्, तस्मात्-सनुम: (बहुव्रीहिः)।
अनु०-संहितायाम्, रात्, न:, णः, उपसर्गात्, कृति, अच:, हल इति चानुवर्तते।
__ अन्वय:-संहितायाम् उपसर्गस्य राद् सनुम इजादेहलोऽच: कृति नो णः।
अर्थ:-संहितायां विषये उपसर्गस्य रेफात् परस्य, सनुम इजादेहलन्ताद् धातोर्विहितस्याच: परस्य कृत्प्रत्ययस्य नकारस्य स्थाने, विकल्पेन णकारादेशो भवति।
उदा०-प्रेङ्क्षणम्, परेडणम् । प्रेङ्गणम्, परेङ्गणम्। प्रोम्भणम्, परोम्भणम्।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रात्) रेफ से परवर्ती (सनुमः) नुम्-सहित (इजादे:) इजादि (हल:) हलन्त धातु से विहित (अच:) अच् से उत्तरवर्ती (कृति) कृत्-प्रत्यय के (न:) नकार के स्थान में (विभाषा) विकल्प से (ण:) णकार आदेश होता है।
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