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अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
उदा०- (अन) प्रयापणम्, प्रयापनम् । बिताना । (मान) प्रयाप्यमाणम्, प्रयाप्यमानम् । बिताया जाता हुआ। ( अनीय) प्रयायणीयम्, प्रयायनीयम् । बिताना चाहिये। (अनि) अप्रयापणिः, अप्रयापनि: । तेरा समय यापन आदि न हो (आक्रोश ) । ( इनि) प्रयापिणौ, प्रयापिनौ । समय आदि यापनशील दो पुरुष ।
सिद्धि-प्रयापणम् । यहां प्रथम प्र-उपसर्गपूर्वक 'या प्रापणे' (अदा०प०) धातु से हेतुमति च' (३ 1१ 1२६ ) से 'णिच्' प्रत्यय है । 'अर्तिही०' (७ । ३ । ३६ ) से 'या' को पुक् आगम है। तत्पश्चात् णिजन्त 'यापि' धातु से 'ल्युट् च' (३1३ 1१५ ) से भाव अर्थ में 'ल्युट्' प्रत्यय है । 'युवोरनाक' (७ 1१1१) से 'यु' को 'अन' आदेश है। 'णेरनिटिं' (६/४/५१) से णिच् का लोप होता है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग से परवर्ती णिजन्त प्र+यापि धातु से विहित कृत्-संज्ञक 'अन' प्रत्यय के नकार को णकार आदेश होता है। विकल्प- पक्ष में णकार आदेश नहीं है।
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‘प्रयाप्यमाणम्' आदि पदों की सिद्धि पूर्ववत् है । केवल 'या' धातु से णिच् प्रत्यय और पुक् आगम विशेष है।
णकारादेशविकल्पः
(३०) हलश्चेजुपधात् । ३० ।
प०वि० - हल: ५ ।१ च अव्ययपदम्, इजुपधात् ५ ।१ । स०-इज् उपधा यस्य स इजुपध:, तस्मात् - इजुपधात् ( बहुव्रीहि: ) । अनु० - संहितायाम्, रात्, नः, णः, उपसर्गात्, कृति, अच:, विभाषा इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - संहितायाम् उपसर्गस्य राद् इजुपधात् हलोऽच: कृति नो विभाषा णः ।
अर्थ :- संहितायां विषये उपसर्गस्य रेफात् परस्माद्, इजुपधद् हलदेर्धातोर्विहितस्याचः परस्य कृत्प्रत्ययस्य नकारस्य स्थाने, विकल्पेन
कारादेशो भवति ।
उदा०-प्रकोपणम्, प्रकोपनम् । परिकोपणम्, परिकोपनम् ।
आर्यभाषाः अर्थ-( संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रात्) रेफ से परवर्ती (इजुपधात्) इच् उपधावाले (हलादे: ) हलादि धातु से भी उत्तरवर्ती (अच:) अच्-परक से (कृतिः) कृत्-प्रत्यय के (नः) नकार के स्थान में (विभाषा) विकल्प से (णः) णकार आदेश होता है.
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