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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
(३) प्रयायमाणम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'या प्रापणे' (अदा०प०) धातु कर्मवाच्य में 'शानच्' प्रत्यय है। 'भावकर्मणोः ' (१ । ३ । १३) से आत्मनेपद और 'सार्वधातुके यक्' (३।१।६७) से 'यक्' विकरण- प्रत्यय है । 'आने मुक्' (७।२।८२ ) से मुक् आगम है। परि-उपसर्ग में परियायमाणम् ।
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(४) प्रयाणीयम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'या' धातु से 'तव्यत्तव्यानीयरः' (३ ।१ ।९६) से अनीयर् प्रत्यय है। परि-उपसर्गपूर्वक में परियाणीयम् ।
(५) अप्रयाणिः। यहां नञ् - उपपद तथा प्र-उपसर्गपूर्वक 'या' धातु से 'आक्रोशे नत्र्यनिः' (३ । ३ । ११२) से आक्रोश (कोसना) अर्थ में अनि प्रत्यय है। जैसे कि-अकरणिस्ते वृषल भूयात् । हे नीच ! तेरी अणहोणी हो । परि-उपसर्ग में- अपरियाणिः ।
(६) प्रयायिणौ । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक 'या' धातु से 'सुप्यजातौ णिनिस्ताच्छील्यै (३/२/७८) से णिनि ( इनि) प्रत्यय है। परि-उपसर्ग में परियायिणौ ।
(७) प्रहीण: । प्र-उपसर्गपूर्वक 'ओहाक् त्यागे' (जु०प०) धातु से निष्ठा-संज्ञक 'क्त' प्रत्यय है। 'ओदितश्च' (८/२/४५) से निष्ठा के तकार को नकार आदेश और 'घुमास्था०' (६।४।६६) से ईकार आदेश है । परि - उपसर्ग में परिहीण: । क्तवतुप्रत्यय में - प्रहीणवान्, परिहीणवान् ।
णकारादेशविकल्पः
(२६) णेर्विभाषा । २६ ।
प०वि० - णे: ५ ।१ विभाषा १ । १ ।
अनु० - संहितायाम्, रात्, नः, ण, उपसर्गात्, कृति, अच इति चानुवर्तते ।
अन्वयः -संहितायाम् उपसर्गस्य राद् णेरचः कृति नो विभाषा णः । अर्थ:-संहितायां विषये उपसर्गस्य रेफात् परस्य ण्यन्ताद् धातोर्विहितस्य, अच उत्तरस्य कृत्प्रत्ययस्य नकारस्य स्थाने, विकल्पेन णकारादेशो भवति ।
उदा०- (अन) प्रयापणम्, प्रयापनम् । (मान) प्रयाप्यमाणम्, प्रयाप्यमानम्। (अनीय) प्रयायणीयम्, प्रयायनीयम्। (अनि) अप्रयापणिः, अप्रयापनि: । ( इनि) प्रयापिणौ, प्रयापिनी ।
I आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रात्) रेफ से परवर्ती (णे:) णिजन्त धातु से विहित, (अच: ) अच् से उत्तरवर्ती (कृति:) कृत्-प्रत्यय के (नः) नकार के स्थान में (विभाषा) विकल्प से (णः) णकार आदेश होता है।
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