________________
७२६
अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
७२६ णकारादेशः
(२८) कृत्यचः ।२८। प०वि०-कृति ७।१ अच: ५।१ । अनु०-संहितायाम्, रात्, न:, ण:, उपसर्गादिति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् उपसर्गस्य राद् अच: कृति नो णः ।
अर्थ:-संहितायां विषये उपसर्गस्य रेफात् परस्य, अच उत्तरस्य कृत्स्थस्य नकारस्य स्थाने, णकारादेशो भवति । अन-मान-अनीय-अनिइनि-निष्ठादेशा: प्रयोजयन्ति।
उदा०-(अन) प्रयाणम्, परियाणम् । प्रमाणम्, परिमाणम् । (मान) प्रयायमाणम्, परियायमाणम्। (अनीय) प्रयाणीयम्, परियाणीयम् । (अनि) अप्रयाणिः, अपरियाणिः। (इनि) प्रयायिणौ, परियायिणौ। (निष्ठादेश:) प्रहीण:, परिहीण: । प्रहीणवान्, परिहीणवान् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (उपसर्गस्य) उपसर्ग के (रात्) रेफ और {षकार) से परवर्ती (अच:) अच् से उत्तरवर्ती (कृति) कृत् प्रत्यय के (न:) नकार के स्थान में (ण:) णकार आदेश होता है। यहां अन, मान, अनीय, अनि, इनि और निष्ठादेश के नकार को णकार आदेश करना प्रयोजन है।
उदा०-(अन) प्रयाणम् । प्रस्थान करना। परियाणम् । सर्वत: गमन करना। प्रमाणम् । लम्बाई मांपना। परिमाणम् । तोलना। (मान) प्रयायमाणम् । प्रस्थान करता हुआ कुल। परियायमाणम्। सर्वत: गमन करता हुआ कुल। (अनीय) प्रयाणीयम् । प्रस्थान करना चाहिये। परियाणीयम् । सर्वत: गमन करना चाहिये। (अनि) अप्रयाणिः । प्रस्थान न हो (आक्रोश)। अपरियाणि: । सर्वत: गमन न हो (आक्रोश)। (इनि) प्रयायिणौ। प्रस्थानशील दो पुरुष। परियायिणौ । सर्वत: गमनशील दो पुरुष। (निष्ठादेश) प्रहीणः । अति हीन। परिहीण: । सर्वत: हीन। प्रहीणवान्, परिहीणवान् । अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-(१) प्रयाणम् । यहां प्र-उपसर्गपूर्वक या प्रापणे (अदा०प०) धातु से ल्युट् च (३।३।११५) से भाव अर्थ में ल्यूट्' प्रत्यय है। युवोरनाकौ (७।१।१) से यु' को 'अन' आदेश है। इस सूत्र से प्र-उपसर्ग के रेफ से परवर्ती और अच् उत्तरवर्ती कृत्-प्रत्यय 'अन' के नकार को णकार आदेश होता है। परि-उपसर्ग में-परियाणम् ।
(२) प्रमाणम् । प्र-उपसर्गपूर्वक मा माने (अदा०प०) धातु से करणधिकरणयोश्च (३।३।११७) से करण कारक में 'ल्युट्' प्रत्यय है। परि-उपसर्ग में-परियाणम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org