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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
सिद्धि-न्यषीदत् । यहां नि-उपसर्गपूर्वक 'षट्ट विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) धातु से 'लङ्' प्रत्यय है । 'कर्तरि शप्' (३ | १ | ६८) से 'शप्' विकरण- प्रत्यय है। 'पाघ्राध्मा०' (७।३।७८) से 'सद्' के स्थान में 'सीद' आदेश होता है। इस सूत्र से नि-उपसर्ग के इण् वर्ण से परवर्ती तथा अट्-आगम के व्यवधान में सकार को मूर्धन्य आदेश होता है। यहां 'सदिरप्रते:' (८ । ३ । ६६ ) से नित्य मूर्धन्य आदेश प्राप्त था । अतः इस सूत्र से यह विकल्प विधान किया गया है। विकल्प-पक्ष में- न्यसीदत् ।
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वि-उपसर्ग में- व्यषीदत्, व्यसीदत् । अभि-उपसर्ग में- अभ्यषीदत्, अभ्यसीदत् । 'ष्टुञ् स्तुतौं' (अदा० उ० ) धातु से - न्यष्टौत्, न्यस्तौत् । यहां 'उपसर्गात् सुनोति०' ( ८1३/६५ ) से नित्य मूर्धन्य आदेश प्राप्त था । अत: इस सूत्र से यह विकल्प-विधान किया गया है।
अभि-उपसर्ग में-अभ्यष्टौत, अभ्यस्तौत् । यहां 'अदिप्रभृतिभ्यः शप: ' (२।४।७२ ) से 'शप्' का लुक् और 'उतो वृद्धिर्लुकि हलिं' (७।३।८९) से वृद्धि होती है। ( इति मूर्धन्यादेशप्रकरणम्)
।। इति पूर्वसंहिताप्रकरणं समाप्तम् ।।
इति पण्डितसुदर्शनदेवाचार्यविरचिते पाणिनीयाष्टाध्यायीप्रवचने अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ।।
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