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________________ ६६३ अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः उदा०-(सोढ्) परिसोढः । परिसोढुम्। परिसोढव्यम् । अत्र सोढ इति वचनेन सहधातो: सोदरूपं गृह्यते। आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इण वर्ण से परवर्ती (सोढः) सह' धातु के सोढ्' रूप के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है। . उदा०-(सोद) परिसोढः । सर्वत: सहन किया हुआ। परिसोढुम् । सर्वत: सहन करने केलिये। परिसोढव्यम् । सर्वत: सहन करना चाहिये। सिद्धि-(सोढ्) परिसोढः । यहां परि-उपसर्गपूर्वक षह मर्षणे' (भ्वा०आ०) धातु से 'क्त' प्रत्यय है। हो ढः' (८।२।३१) से हकार को ढकार, 'झषस्तथो?ऽध:' (८।२।४०) से तकार को धकार, टुना ष्टुः' ८।४।४१) से धकार को टवर्ग ढकार और ढो ढो लोप:' (८।३।१३) से पूर्ववर्ती ढकार का लोप होता है। 'सहिवहोरोदवर्णस्य' (६।३।१२) से 'सह' के 'अ' वर्ण को ओकार आदेश होता है। इस सूत्र से परि' के इण वर्ण से परवर्ती सह्' धातु के सोद' रूपस्थ सकार को मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध होता है। परिनिविभ्य: सेवसित०' (८।३।७०) से मूर्धन्य आदेश प्राप्त था। अत: इस सूत्र से उसका प्रतिषेध किया गया है। तुमुन् प्रत्यय में-परिसोढुम् । तव्यत् प्रत्यय में-परिसोढव्यम् । मूर्धन्यादेशप्रतिषेधः (६२) स्तम्भुसिवुसहां चङि।११६ । वि०-स्तम्भु-सिवु-सहाम् ६ ।३ चङि ७।१। स०-स्तम्भुश्च सिवुश्च सह् च ते स्तम्भुसिवुसहः, तेषाम्-स्तम्भुसिवुसहाम् (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इण:, न इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायाम् इण: स्तम्भुसिवुसहामपदान्तस्य सश्चडि मूर्धन्यो न। अर्थ:-संहितायां विषये इण: परेषां स्तम्भुसिवुसहां धातूनामपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, चडि परतो मूर्धन्यादेशो न भवति। उदा०-(स्तम्भु) स पर्यतस्तम्भत्। सोऽभ्यतस्तम्भत्। (सिवु) स पर्यसीषिवत् । स न्यसीषिवत् । (सह) स पर्यसीषहत् । स व्यसीषहत् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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