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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषा अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (इण:) इण् वर्ण से परवर्ती ( स्तम्भुसिवुसहाम्) स्तम्भु, सिवु, सह इन धातुओं ( अपदान्तस्य ) अपदान्त (सः) सकार के स्थान में (चङि) चङ् प्रत्यय परे होने पर (मूर्धन्यः ) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है।
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उदा०- . ( स्तम्भु) स पर्यतस्तम्भत् । उसने सर्वतः प्रतिबन्धित कराया। सोऽभ्यतस्तम्भत्। उसने अभितः प्रतिबन्धित कराया। (सिवु ) स पर्यसीषिवत् ! उसने सर्वत: सिलाई कराई । स न्यसीषिवत् । उसने निम्नतः सिलाई कराई । (सह ) स पर्यसीषहत्। उसने सर्वतः मर्षण कराया । स व्यसीषहत्। उसने विशेषतः मर्षण कराया । मर्षण = तितिक्षा - सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वों को सहन करना ।
सिद्धि-(१) पर्यतस्तम्भत् । यहां परि-उपसर्गपूर्वक स्तम्भु प्रतिबन्धे' (प० सौत्रधातु) से प्रथम हेतुमति च' (३ 1१/२६ ) से णिच्' प्रत्यय है । तत्पश्चात् णिजन्त स्तम्भ' धातु से 'लुङ्' (३।२1११०) से लुङ्' प्रत्यय है । 'णिश्रिद्रुस्रुभ्यः कर्तरि चङ्-' ( ३।११४८) से 'चिल' के स्थान में 'चङ्' आदेश है। 'चङि' ( ६ 1१1११ ) से धातु को द्विर्वचन होता है। इस सूत्र से 'परि' के इण् वर्ण से परवर्ती 'स्तम्भ' धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध होता है। यहां 'स्तम्भे' (८ । ३ । ६७ ) से मूर्धन्य आदेश प्राप्त था । उपसर्ग से उत्तर अभ्यास के सकार को 'स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य' ( ८1३ 1६४ ) से और 'सवादीनां वाड्व्यवायेऽपि ( ८1३।७१ ) से अट् के व्यवधान में भी मूर्धन्य आदेश प्राप्त था । अतः इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। 'आदेशप्रत्यययो:' ( ८1३1५९) से मूर्धन्य होता ही है। अभि-उपसर्गपूर्वक में- अभ्यतस्तम्भत् ।
(२) पर्यसीषिवत् । यहां परि-उपसर्गपूर्वक षिवु तन्तुसन्ताने' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय और तत्पश्चात् 'लुङ्' प्रत्यय है। यहां परिनिविभ्यः सेवसित०' ( ८1३/७०) से मूर्धन्य आदेश प्राप्त था । अतः इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। 'णिच्' प्रत्यय परे होने पर 'पुगन्तलघूपधस्य च' (७/३/८६) से धातु को लघूपधलक्षण गुण होकर 'णौ चsयुपधाया हस्व:' ( ७/४ 1१ ) से ह्रस्वादेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है । नि-उपसर्ग में - न्यसीषिवत् ।
(३) पर्यसीषहत् । यहां परि-उपसर्गपूर्वक 'वह मर्षणे (भ्वा०आ०) धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय और तत्पश्चात् 'लुङ्' प्रत्यय है। यहां परिनिविभ्यः सेवसित०' ( ८1३/७०) से मूर्धन्य आदेश प्राप्त था अत: इस सूत्र से प्रतिषेध किया गया है। 'सवल्लघुनि चङ्परेऽग्लोपे (७।४।९३) से सन्वद्भाव होकर 'सन्यतः' (७/४ 1७९) से 'सह' धातु के अभ्यास को इकारादेश और उसे 'दीर्घो लघोः' (७/४/९४) से दीर्घ होता है । वि-उपसर्ग में - व्यसीषहत् ।
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