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________________ अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः ६६१ उदा०- (सिच् ) स परिसेसिच्यते । वह पुन: - पुनः परितः सींचता है । सोऽभिसेसिच्यते । वह पुन: पुन: अभितः सींचता है। सिद्धि-परिसेसिच्यते। यहां परि-उपसर्गपूर्वक षिच क्षरणे' (तु०प०) धातु से 'धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ् ( ३ | १/२२ ) से पौनःपुन्य अर्थ में 'यङ्' प्रत्यय है। 'सन्यङो:' (६ 1१ 1९ ) से धातु को द्वित्व और 'गुणो यङ्लुको:' (७।४।८२) से अभ्यास को गुण होता है। परि-उपसर्ग से परवर्ती 'सिच्' धातु के सकार को 'उपसर्गात् सुनोति०' (८ | ३ |६५) से मूर्धन्य आदेश प्राप्त था, अतः इस सूत्र से उसका प्रतिषेध किया गया है। अभि-उपसर्गपूर्वक से - अभिसेसिच्यते । 'सेसिच्यते' पद में 'आदेशप्रत्यययोः' ( ८1३1५९) से आदेशलक्षण मूर्धन्य आदेश प्राप्त था । इस सूत्र से उसका प्रतिषेध होता है। मूर्धन्यादेशप्रतिषेधः (५९) सेधतेर्गतौ । ११३ । प०वि० - सेधते : ६ । १ गतौ ७ । १ । अनु०-संहितायाम्, सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, न इति चानुवर्तते । अन्वयः - संहितायाम् इणो गतौ सेधतेरपदान्तस्य सो यङि मूर्धन्यो न । अर्थ:-संहितायां विषये इणः परस्य गत्यर्थे वर्तमानस्य सेधतेरपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, मूर्धन्यादेशो न भवति । उदा० - स परिसेधयति गाः । सोऽभिसेधयति गाः । आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (इण:) इण् वर्ण से परवर्ती ( गतौ) गति - अर्थ में विद्यमान (सेधतेः ) सिधू धातु के ( अपदान्तस्य) अपदान्त (सः) सकार के स्थान में (मूर्धन्यः) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है। उदा०-स परिसेधयति गा: । वह गौओं को परितः चलाता है, घुमाता है। सोऽभिसेधयति गा: । वह गौओं को अभितः चलाता है। सिद्धि-परिसेधयति। यहां परि-उपसर्गपूर्वक 'षिधु गत्याम्' (भ्वा०प०) धातु से प्रथम हेतुमति च' (३ । १ । २६ ) से 'णिच्' प्रत्यय है । तत्पश्चात् णिजन्त सेधि' धातु से 'लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में तिप्' आदेश है। इस सूत्र से 'परि' के इण् वर्ण से परवर्ती सेधति' धातु के अपदान्त (पदादि) सकार को मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध होता है। ऐसे ही अभि-उपसर्ग में- अभिसेधयति । विशेषः यहां गत्यर्थक सेधति धातु के कथन से 'षिधू शास्त्रे माङ्गल्ये च' (भ्वा०प०) धातु का ग्रहण नहीं होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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