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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-संहितायाम् विषये इण: परस्य साद् इत्येतस्य पदादेश्च सकारस्य स्थाने, मूर्धन्यादेशो न भवति।
__ उदा०-(सात्) अग्निसात्, दधिसात्, मधुसात्। (पदादि:) दधि सिञ्चति । मधु सिञ्चति।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) संहिता विषय में (इण:) इण वर्ण से परवर्ती (सात्पदाद्यो:) सात् और पद के आदिम सकार के स्थान में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है।
__ उदा०-(सात) अग्निसाद् भवति शस्त्रम् । शस्त्र अग्निरूप होता है। दधिसात् । दधिरूप। मधुसात् । मधुरूप। (पदादि) दधि सिञ्चति । वह ओदन आदि में दधि (दही) को सींचता है। मधु सिञ्चति । वह औषध आदि में मधु (शहद) को सींचता है।।
सिद्धि-(१) अग्निसात् । यहां 'अग्नि' शब्द से विभाषा साति कात्स्यें (५।४।५२) से साति' प्रत्यय है। आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से प्रत्ययलक्षण मूर्धन्य आदेश प्राप्त था। अत: इस सूत्र से उसका प्रतिषेध किया गया है। ऐसे हीदधिसात, मधुसात्।
(२) दधि सिञ्चति । यहां षिच क्षरणे' (तु०प०) धातु से लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में तिप्' आदेश है। 'शे मुचादीनाम् (७।१।५९) से 'नुम्' आगम होता है। 'धात्वादे: षः सः' (६।१।६३) से धातु के आदिम षकार को सकारादेश है। अत: आदेशप्रत्यययोः' (५।४।५९) से सकार को आदेशलक्षण मूर्धन्य आदेश प्राप्त था। अत: इस सूत्र से उसका प्रतिषेध किया गया है। ऐसे ही-मधु सिञ्चति । मूर्धन्यादेशप्रतिषेधः
(५८) सिचो यङि।११२। प०वि०-सिच: ६१ यङि ७।१।। अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इणः, न इति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायाम् इण: सिचोऽपदान्तस्य सो यङि मूर्धन्यो न।
अर्थ:-संहितायां विषये इण: परस्य सिचोऽपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, यङि परतो मूर्धन्यादेशो न भवति ।
उदा०-(सिच्) स परिसेसिच्यते। सोऽभिसेसिच्यते।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इण् वर्ण से परवर्ती (सिच:) सिच् धातु के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (यङि) यङ् प्रत्यय परे होने पर (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश (न) नहीं होता है।
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