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________________ ६८५ अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः मूर्धन्यादेशः __ (५३) सुञः ।१०७। वि०-सुज: ६।१। अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इणः, छन्दसि, पूर्वपदादिति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां छन्दसि च पूर्वपदाद् इणोऽपदान्तस्य सुत्र: सो मूर्धन्यः। ___अर्थ:-संहितायां छन्दसि च विषये पूर्वपदस्थादिण: परस्य सुञोऽपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, मूर्धन्यादेशो भवति। उदा०-(सुञ्) अभी षु ण: सखीनाम् (ऋ० ४।३१ ॥३) । ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये (ऋ० १।३६।१३)। आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि और (छन्दसि) वेद विषय में (पूर्वपदात्) पूर्वपद में अवस्थित (इण:) इण वर्ण से परवर्ती (सुञः) सुञ् शब्द के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है। उदा०-(सु) अभी षु ण: सखीनाम् (ऋ० ४।३१।३) । इन्द्र हमारे मित्रों का प्रत्यक्षत: उत्तम रक्षक है। ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये (ऋ० १ ३६ ॥१३) । अग्नि हमारी रक्षा के लिये ऊर्ध्व दिशा में अवस्थित है। सिद्धि-अभी षु ण: सखीनाम् । यहां 'अभि' शब्द के इण वर्ण से परवर्ती 'सु' निपात के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है। इक: सुजि' (६।३।१३४) से 'अभि' के इकार को दीर्घ और 'नश्च धातुस्थोरुषुभ्य:' (८।४।२७) से 'न:' को णत्व होता है। ऐसे ही-ऊर्ध्व ऊ षु ण ऊतये (उ सु न:)। मूर्धन्यादेशः (५४) सनोतेरनः।१०८। प०वि०-सनोते: ६।१ अन: ६।१। स०-अविद्यमानो नकारो यस्य स:-अन्, तस्य-अन: (बहुव्रीहिः)। अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इण:, छन्दसि, पूर्वपदादिति चानुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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