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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः अग्नि, वह। (ततक्षुः) अर्चिभिष्टतक्षुः । अर्चिभिस्ततक्षुः । उन्होंने किरणों के द्वारा सूक्ष्म किया (छीला)।
सिद्धि-अर्चिभिष्ट्वम्, अर्चिभिस्त्वम् इत्यादि पदों में इण वर्ण से परवर्ती सकार को पाणिनि मुनि के मत में मूर्धन्य आदेश है और अन्य आचार्यों के मत में मूर्धन्य आदेश नहीं है। मूर्धन्यादेशविकल्प:
(५१) स्तुतस्तोमयोश्छन्दसि।१०५। प०वि०-स्तुत-स्तोमयोः ६ ।२ छन्दसि ७१।
स०-स्तुतं च स्तोमश्च तौ स्तुतस्तोमौ, तयो:-स्तुतस्तोमयो: (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्यः, इण:, एकेषामिति चानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायां छन्दसि च इण: स्तुतस्तोमयोरपदान्तस्य स एकेषां मूर्धन्यः।
अर्थ:-संहितायां छन्दसि च विषये इण: परयो: स्तुतस्तोमयोरपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, एकेषामाचार्याणां मतेन मूर्धन्यादेशो भवति ।
उदा०-युष्मदादेशा:- (स्तुतम्) त्रिभिष्टुतस्य, त्रिभिस्तुतस्य (मै०सं० १।३ ३९) । नृभिष्टुतस्य, नृभिस्तुतस्य । (स्तोम:) गोष्टोमं षोडशिनम् (द्र०-तै०सं० ७।४।११।१), गोस्तोमं षोडशिनम् (तु-आoश्रौ० ९।५।९)।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि और (छन्दसि) वेद विषय में (इण:) इण वर्ण से परवर्ती (स्तुतस्तोमयो:) स्तुत, स्तोम इन शब्दों के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (एकेषाम्) कुछ एक अचार्यों के मत में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-युष्मद्-आदेश-(स्तुतम्) त्रिभिष्टुतस्य, त्रिभिस्तुतस्य (मै०सं० १।३।३९)। तीन पुरुषों के द्वारा स्तुति किये गये का। नृभिष्टुतस्य, नृभिस्तुतस्य । नरों के द्वारा स्तुति किये गये का। (स्तोम:) गोष्टोमं षोडशिनम् (द्र०-तै०सं० ७।४।११।१), गोस्तोमं षोडशिनम् (तु०-आoश्रौ० ९ ।५।९)। गोस्तोमम् गौओं के समूह को।
सिद्धि-त्रिभिष्टुतस्य, त्रिभिस्तुतस्य आदि प्रयोगों में इण से परवर्ती सकार को पाणिनि मुनि के मत में मूर्धन्य आदेश है और अन्य आचार्यों के मत में मूर्धन्य आदेश नहीं है।
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