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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
६७७ आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (सुषामादिषु) सुषामा आदि शब्दों में (च) भी (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (मूर्धन्यः) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-सुषामा ब्राह्मणः। सामवेद के उत्तम-गान का ज्ञाता ब्राह्मण। दुष्षामा। सामवेद का निकृष्ट गान करनेवाला। निष्षामा। सामगान से अनभिज्ञ, इत्यादि।
सिद्धि-सुषामा। यहां सु और सामन् शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे' (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से 'सु' शब्द से सामन्' शब्द के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है। दुर्-पूर्वपद में-दुष्षामा। यहां खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८/३/१५) से रेफ को विसर्जनीय आदेश, वा शरि' (८।३।१५) से इसे सकारादेश और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से इसे पकारादेश है। निर्-पूर्वपद में-निष्षामा। मूर्धन्यादेशविकल्पः
(४५) एति संज्ञायामगात्।६६ । प०वि०-एति ७१ संज्ञायाम् ७१ अगात् ५।१ । स०-न ग इति अग:, तस्मात्-अगात् (नञ्तत्पुरुषः)। अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इणकोरिति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायां संज्ञायां चाऽगाद् इण्कोरपदान्तस्य स एति मूर्धन्यः ।
अर्थ:-संहितायां संज्ञायां च विषये गकारवर्जिताद् इण्कोरुत्तरस्याऽपदान्तस्य सकारस्य स्थाने, एकारे परतो मूर्धन्यादेशो भवति ।
उदा०-हरय: सेना यस्य स:-हरिषेण: । वारिषेण: । जानुषेणः ।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि और (संज्ञायाम्) संज्ञा-विषय में (अगात्) गकार से भिन्न (इण्को:) इण् और कवर्ग से परवर्ती शब्द से (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (एति) एकार परे होने पर (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-हरिषेण: । हरि-वानरों की सेनावाला। वारिषेणः। जल-सेनावाला। जानुषेणी। घुटने के बल चलनेवाली सेनावाला। ये संज्ञाविशेष हैं।
सिद्धि-हरिषेण: । यहां हरि और सेना शब्दों का 'अनेकमन्यपदार्थे (२।२।२४) से बहुव्रीहि समास है। इस सूत्र से गकार से भिन्न कवर्ग एवं इणन्त हरि' शब्द से परवर्ती तथा एकारपरक सेना' शब्द के सकार को संज्ञाविषय में मूर्धन्य आदेश होता है। 'गोस्त्रियोरुपसर्जनस्य' (१।२।४८) से उपसर्जन सेना' शब्द को ह्रस्वादेश होता है। ऐसे ही-वारिषेण, जानुषेणी।
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