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દહર
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् उदा०-विष्टरो वृक्षः । विष्टरम् आसनम् ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (विष्टर:) विष्टर इस पद में (वृक्षासनयोः) वृक्ष और आसन अर्थ अभिधेय में (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश निपातित है।
उदा०-विष्टर: । वृक्ष, आसन।
सिद्धि-विष्टरः। यहां वि-उपसर्गपूर्वक स्तृञ् आच्छादने (क्रया०3०) धातु से ऋदोरप्' (३।३।५७) से 'अप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से इणन्त वि-उपसर्ग से परवर्ती 'स्तृ' धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश निपातित है। 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकार को टवर्ग टकार आदेश होता है।
विशेष: विष्टर शब्द वृक्ष और आसन अर्थ में रूढ है। इसकी यथासम्भव व्युत्पत्ति की जाती है। 'ओं विष्टरो विष्टरो विष्टर: प्रतिगृह्यताम्' (पारगृह्य० १।३।४)। यह उत्तम आसन है, आप ग्रहण कीजिये। निपातनम्
(४०) छन्दोनाम्नि चा६४। प०वि०-छन्दोनाम्नि ७१ च अव्ययपदम्।
स०-छन्दसो नाम इति छन्दोनाम, तस्मिन्-छन्दोनाम्नि (षष्ठीतत्पुरुषः)।
अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, विष्टर इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां छन्दोनाम्नि च विष्टर: विष्टार इति निपातनम् ।
अर्थ:-संहितायां छन्दोनाम्नि च विषये विष्टर: विष्टार इत्यत्रा- . पदान्तस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो निपात्यते।
उदा०-विष्टारपङ्क्तिश्छन्दः । विष्टारबृहती छन्दः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि और (छन्दोनाम्नि) छन्दोनाम विषय में (च) भी (विष्टर:) विष्टर विष्टार इस पद में (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश निपातित है।
उदा०-विष्टारपक्तिश्छन्दः। विष्टार पंक्ति नामक एक वैदिक छन्द है। विष्टारबृहती छन्दः । विष्टार बृहती नामक एक वैदिक छन्द है।
सिद्धि-विष्टारः। यहां वि-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त 'स्तृ' धातु से 'छन्दोनाम्नि च (३।३।३४) से घञ्' प्रत्यय है। 'अचो णिति (७।२।११५) से स्त' धातु को वृद्धि होती है। इस सूत्र से इणन्त वि-उपसर्ग से परवर्ती 'स्तृ' धातु के सकार को छन्दोनाम
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