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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
૬૭રૂ विषय में मूर्धन्य आदेश निपातित है। 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकार को टवर्ग टकार आदेश होता है।
विशेष: यहां विष्टर' शब्द की अनुवृत्ति में विष्टर' शब्द से विष्टार' शब्द का ग्रहण किया जाता है क्योंकि छन्दोनाम पूर्वोक्त घञ्-प्रत्ययान्त विष्टार' है; विष्टर नहीं। विष्टारपङ्क्तिरन्त:' (छन्दःशास्त्र १।३)। मूर्धन्यादेशः--
__ (४१) गवियुधिभ्यां स्थिरः ।६५ । प०वि०-गवि-युधिभ्याम् ५।२ स्थिर: १।१ (षष्ठ्यर्थे)।
स०-गविश्च युधिश्च तौ गवियुधी, ताभ्याम्-गवियुधिभ्याम् (इतरेतरयोगद्वन्द्वः)।
अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इण इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् इण्भ्यां गवियुधिभ्यां स्थिरोऽपदान्तस्य सो मूर्धन्यः ।
अर्थ:-संहितायां विषये इणन्ताभ्यां गवियुधिभ्यां परस्य स्थिर इत्येतस्याऽपदान्तस्य सकारस्य स्थाने मूर्धन्यादेशो भवति।
उदा०-(गवि) गविष्ठिरः। (युधि) युधिष्ठिरः ।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण्भ्याम्) इणन्त (गवियुधिभ्याम्) गवि, युधि इन शब्दों से परवर्ती (स्थिर:) स्थिर इस शब्द के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स:) सकार के स्थान में (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-(गवि) गविष्ठिरः । संज्ञाविशेष है। (युधि) युधिष्ठिरः । संज्ञाविशेष है।
सिद्धि-गविष्ठिरः । गवि तिष्ठतीति गविष्ठिरः। यहां गो और स्थिर शब्दों का सप्तमीतत्पुरुष समास है। हलदन्तात् सप्तम्या: संज्ञायाम् (६।३।८) में हलन्त शब्द से सप्तमी का अलुक् कहा गया है; गो शब्द अजन्त है। अत: यहां इस सूत्रोक्त निपातन से सप्तमी का अलुक समझना चाहिये। युधि' शब्द से-युधिष्ठिरः। यहां हलदन्तात् सप्तम्या: संज्ञायाम् (६।३।८) से संज्ञाविषय में सप्तमी का अलुक है।
यहां 'सात्पदाद्यो:' (८।३।१११) से पदादिलक्षण प्रतिषेध प्राप्त था, अत: मूर्धन्यादेश का विधान किया गया है। मूर्धन्यादेशः
(४२) विकुशमिपरिभ्यः स्थलम्।६६। प०वि०-वि-कु-शमि-परिभ्य: ५ १३ स्थलम् १।१ (षष्ठ्यर्थे)।
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