________________
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम्
आर्यभाषाः अर्थ - ( संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (प्रतिष्णातम् ) प्रतिष्णात इस पद में (अपदान्तस्य) अपदान्त (सः) सकार के स्थान में (मूर्धन्यः) मूर्धन्य आदेश निपातित है (सूत्रम्) जो प्रतिष्णात है यदि वह सूत हो ।
६७०
उदा० - प्रतिष्णातं सूत्रम् । शुद्ध सूत ।
सिद्धि-प्रतिष्णातम् । यहां प्रति-उपसर्गपूर्वक 'ष्णा शौचे' (अदा०प०) धातु से 'निष्ठा' (३1२1१०२ ) से 'क्त' प्रत्यय है। इस सूत्र से इणन्त प्रति-उपसर्ग से परवर्ती 'स्ना' धातु के सकार को सूत्र अर्थ अभिधेय में मूर्धन्य आदेश निपातित है । 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४१) से नकार को टवर्ग णकार आदेश होता है।
निपातनम्
(३७) कपिष्ठलो गोत्रे । ६१ ।
प०वि०-कपिष्ठलः १ । १ गोत्रे ७ । १ ।
अनु०-संहितायाम्, सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः इति चानुवर्तते । अन्वयः - संहितायां गोत्रे च कपिष्ठलो निपातनम् ।
अर्थ:-संहितायां गोत्रे च विषये कपिष्ठल इत्यत्रापदान्तस्य सकारस्य मूर्धन्यादेशो निपात्यते ।
उदा० - कपिष्ठलो नाम ऋषिः । तस्यापत्यम् - कापिष्ठलिः ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि और ( गोत्रे ) गोत्र विषय में (कपिष्ठलः) कपिष्ठल इस पद में (अपदान्तस्य) अपदान्त (सः) सकार के स्थान में (मूर्धन्यः ) मूर्धन्य आदेश निपातित है।
उदा०- कपिष्ठल नामक ऋषि की सन्तान कापिष्ठलि कहलाती है।
सिद्धि- कपिष्ठल: । यहां कपि और स्थल शब्दों का 'उपमितं व्याघ्रादिभिरसामान्यप्रयोगे (२।१।५६ ) से कर्मधारय समास है - कपिरिव स्थल इति कपिष्ठल: । यह शब्द की व्युत्पत्तिमात्र है । अवयवार्थ नहीं है। इस सूत्र से इणन्त 'कपि' शब्द से परवर्ती स्थल' शब्द के सकार को गोत्र विषय में मूर्धन्य आदेश निपातित है । 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४१) से थकार को टवर्ग ठकार आदेश है।
यहां लोकप्रसिद्ध गोत्र का ग्रहण किया जाता है, 'अपत्यं पौत्रप्रभृति गोत्रम्' (४।१।१६२ ) इस परिभाषिक गोत्रक नहीं । लोक में अपत्य-सन्तति के प्रवर्तक पुरुष 'गोत्र' नाम से कहे जाते हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org