________________
अष्टभाध्यायस्य तृतीयः पादः
सिद्धि - (१) निषीदति। यहां नि-उपसर्गपूर्वक षट्ट विशरणगत्यवसादनेषु' (भ्वा०प०) धातु से 'लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में तिप्' आदेश और 'कर्तरि शप् (३/१/६८) से 'शप्' विकरण-प्रत्यय है। 'पाघ्राध्मा०' (७।३।७८) से 'सद्' को 'सीद' आदेश होता है। इस सूत्र से इणन्त 'नि' उपसर्ग से परवर्ती सकार को मूर्धन्य आदेश होता है । 'सात्पदाद्यो:' (८ । ३ । १११ ) से पदादिलक्षण प्रतिषेध प्राप्त था, यह उसका पुरस्ताद् अपवाद है । वि-उपसर्गपूर्वक से- विषीदति । अङ्ग्व्यवाय में- न्यषीदत्, व्यषीदत् ।
(२) निषसाद। यहां नि-उपसर्गपूर्वक 'सद्' धातु से लिट्' प्रत्यय है । 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६ 1१1८) से धातु को द्विर्वचन होता है। 'सदेः परस्य लिटि (८ 1३ 1११८) से अभ्यास से परवर्ती सकार को मूर्धन्य आदेश का प्रतिषेध प्राप्तथा । सूत्र से मूर्धन्य आदेश होता है।
'अप्रते:' का कथन इसलिये है कि यहां आदेश न हो - प्रतिसीदति ।
मूर्धन्यादेश:
(१३) स्तम्भेः । ६७ ।
६४५
वि०-स्तम्भे: ६ । १ ।
?
अनु० - संहितायाम्, सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, इणः, अडभ्यासव्यवाये, अपि, स्थादिषु, अभ्यासेन च अभ्यासस्य, उपसर्गादिति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायाम् इण उपसर्गात् स्तम्भेरपदान्तस्य सोऽव्यवायेऽपि, स्थादिष्वभ्यासेन चाभ्यासस्य च मूर्धन्यः ।
अर्थ:-संहितायां विषये इणन्ताद् उपसर्गात् परस्य स्तम्भेरपदान्तस्य सकारस्य स्थानेऽड्व्यवायेऽनड्व्यवायेऽपि, स्थादिषु चाभ्यासेन व्यवायेऽभ्यासस्य च मूर्धन्यादेशो भवति ।
उदा०- (स्तभिः) अभिष्टभ्नाति, परिष्टभ्नाति । अड्व्यवायेअभ्यष्टभ्नात्, पर्यष्टभ्नात् । अभ्यासव्यवाये - अभितष्टम्भ, परितष्टम्भ।
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (इण:) इणन्त (उपसर्गात् ) उपसर्ग से परवर्ती (स्तम्भेः ) स्तम्भ धातु के ( अपदान्तस्य) अपदान्त (सः) सकार के स्थान में ( अड्व्यवायेऽपि ) अट्-आगम के व्यवधान में और अव्यवधान में भी तथा (स्थादिषु) स्था आदि धातुओं में (अभ्यासेन ) अभ्यास के ( व्यवाये) व्यवधान में (च) और (अभ्यासस्य ) अभ्यास को (मूर्धन्यः) मूर्धन्य आदेश होता है।
Jain Education International
उदा०
- (स्तभिः) अभिष्टभ्नाति । वह अभितः रोकता है। परिष्टभ्नाति । वह परित: रोकता है। अव्यवाये - अभ्यष्टभ्नात् । उसने अभितः रोका। परिष्टभ्नात् । उसने
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org