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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
६४३ आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इण् वर्ण जिसके अन्त में है उस (उपसर्गात्) उपसर्ग से परे (सुनोति०) सुनोति, सुवति, स्यति, स्तौति, स्तोभति, स्था, सेनय, सेध, सिच, सञ्ज, स्वज इन धातुओं के (अपदान्तस्य) अपदान्त (स.) सकार के स्थान में (अड्व्यवायेऽपि) अट्-आगम के व्यवधान में और अट्-आगम के अव्यवधान में भी (च) और (स्था) स्था आदि धातुओं में (अभ्यासेन व्यवाये) अभ्यास के व्यवधान में (च) और (अभ्यासस्य) अभ्यास को भी (मूर्धन्य:) मूर्धन्य आदेश होता है।
उदा०-उदाहरण और उनका भाषार्थ संस्कृत-भाग में लिखा है।
सिद्धि-(१) अभिषुणोति। यहां अभि-उपसर्गपूर्वक 'पुत्र अभिषवे' (स्वा०उ०) धातु से लट्' प्रत्यय है। लकार के स्थान में 'तिप्' आदेश और स्वादिभ्यः श्न:' (३।१।७३) से श्नु' विकरण-प्रत्यय है। इस सूत्र से इणन्त अभि उपसर्ग से परे सु' धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है। परि-उपसर्गपूर्वक से-परिषुणोति ।
(२) अभ्यषुणोत् । यहां अभि-उपसर्गपूर्वक पूर्वोक्त सु' धातु से लङ्' प्रत्यय है। 'लुङ्लङ्लक्ष्वडुदात्तः' (६।४ १७१) से अडागम होता है। इस सूत्र से इणन्त अभि-उपसर्ग से परे अडागम के व्यवधान में भी सु' धातु के सकार को मूर्धन्य आदेश होता है। परि-उपसर्गपूर्वक से-पर्यषुणोत्।
(३) अभिषुवति । षु प्रेरणे' (तु०प०) धातु से पूर्ववत् ।
(४) अभिष्यति । षो अन्तकर्मणि' (दि०प०) धातु से पूर्ववत् । 'ओत: श्यनि' (७ ।३।७९) से ओकार का लोप होता है।
(५) अभिष्टौति । 'ष्टुञ स्तुतौं' (अदा०3०) धातु से पूर्ववत् । उतो वृद्धि कि हलि' (७।३।८९) से वृद्धि होती है।
(६) अभिष्ठास्यति । यहां अभि-उपसर्गपूर्वक ष्ठा गतिनिवृत्तौ' (भ्वा०प०) धातु से 'लूट' प्रत्यय है। 'स्यतासी लुलुटो:' (३।१।३३) से 'स्य' विकरण-प्रत्यय है। शेष कार्य पूर्ववत् है। परि-उपसर्गपूर्वक से-परिष्ठास्यति । अड्व्यवाय में-अभ्यष्ठात्, पर्यष्ठात् । अभ्यास व्यवाय में-अभितष्ठौ । 'लिटि धातोरनभ्यासस्य' (६।१८) से 'स्था' धातु को द्वित्व होता है। 'आत औ णल:' (७।१।३४) से णल् के स्थान में औ' आदेश है। परि-उपसर्गपूर्वक से-परितष्ठौ।
(७) अभिषेणयति। यहां अभि-उपसर्गपूर्वक सेना' शब्द से 'सत्यापपाश०' (३।१।२५) से सेनयाऽभियाति अर्थ में णिच्' प्रत्यय है। वा०-'णाविष्ठवत प्रातिपदिकस्य०' (६।४।१५५) से सेना' के टि-भाग (आ) का लोप होता है। तत्पश्चात् अभि+सेनि धातु से लट्' प्रत्यय है। इस सूत्र से सकार को मूर्धन्य होता है। सेना' में आदेश-सकार न होने से षत्व प्राप्त नहीं था, अत: यह कथन किया गया है। अड्व्यवाय में-अभ्यषेणयत्, पर्यषेणयत् । षणभूत सन् में-अभिषिषणयिषति, परिषिषेणयिषति।
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