SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 655
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६३८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् 'सन्यडोः' (६।१।९) से धातु को द्विर्वचन होता है। इस सूत्र से इस धातु के अभ्यास के इण (इ) से परवर्ती सकार को षण् (सन्) परे होने पर सकारादेश होता है। स्तौतिण्योरेव षण्यभ्यासात्' (८॥३॥६१) से षकारादेश प्राप्त था, अत: यह सकार के स्थान में सकारादेश का विधान किया गया है। ऐसे ही-स्वद आस्वादने (भ्वा०आ०) धातु से-सिस्वादयिषति। पह मर्षणे (भ्वा०आ०) धातु से-सिसाहयिषति। अधिकार: (6) प्राक्सितादड्व्यवायेऽपि।६३। प०वि०-प्राक् १।१ सितात् ५।१ अड्व्यवाये ७१ अपि अव्ययपदम्। स०-अटा व्यवाय इति अड्व्यवाय:, तस्मिन्-अड्व्यवाये (तृतीयातत्पुरुषः)। __ अनु०-संहितायाम्, स:, अपदान्तस्य, मूर्धन्य:, इण् इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायाम् इण: स: सितात् प्राग् (८।३ १७०) अड्व्यवायेऽपि मूर्धन्यः। अर्थ:-संहितायां विषये इण उत्तरस्य सकारस्य स्थाने, सितात् प्राग् अड्व्यवायेऽनड्व्यवायेऽपि मूर्धन्यादेशो भवतीत्यधिकारोऽयम् । यथा वक्ष्यति'उपसर्गात् सुनोतिसुवति०' (८।३।६५) इति। __उदा०-अभिषुणोति, परिषुणोति, विषुणोति, निषुणोति । अड्व्यवायेअभ्यषुणोत्, पर्यषुणोत्, व्युषुणोत्, न्यषुणोत् । आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (इण:) इण् से परवर्ती (स:) सकार के स्थान में (सितात्) सित शब्द (७३/७०) से (प्राक्) पहले-पहले (अड्व्यवायेऽपि) अट्-आगम के व्यवधान और अट्-आगम के अव्यवधान में भी (मूर्धन्य:) मूर्धन्यादेश होता है। यह अधिकार सूत्र है। जैसे पाणिनि मुनि कहेंगे- उपसर्गात सुनोतिसुवतिः' (८।३।६५) अर्थात् उपसर्गस्थ निमित्त से परे सुनोति आदि धातुओं के सकार को मूर्धन्यादेश होता है। उदा०-अट् आगम के अव्यवधान में-अभिषणोति। वह रस निचोड़ता है। परिषुणोति । वह सर्वत: रस निचोड़ता है। विषुणोति । वह विशेषत: रस निचोड़ता है। निषुणोति । वह निकृष्टत: रस निचोड़ता है। अट्-आगम के व्यवधान में-अभ्यषुणोत् । उसने रस निचोड़ा। पर्यषुणोत् । उसने सर्वत: रस निचोड़ा। व्युषुणोत् । उसने विशेषत: रस निचोड़ा। न्यषुणोत् । उसने निकृष्टत: रस निचोड़ा। सिद्धि-अभिषुणोति आदि पदों की सिद्धि आगे यथास्थान लिखी जायेगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy