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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
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व्यवहित सकार को मूर्धन्य आदेश होता है । 'सान्तमहतः संयोगस्य ( ६ । ४ 1१०) से दीर्घ और 'नश्चापदान्तस्य झलिं' ( ८1३1२४ ) से नकार को अनुस्वार आदेश होता है। ऐसे ही 'हविस्' शब्द से - हवींषि । 'यजुस्' शब्द से - यजूंषि ।
(२) सर्पिःषु । यहां 'सर्पिस्' शब्द से 'स्वौजस०' (४।१।२) से 'सुप्' प्रत्यय है । 'ससजुषो रु:' (८ / २ / ६६) से सकार को रुत्व और खरवसानयोर्विसर्जनीय:' ( ८1३. 1१५) से 'रु' के रेफ को विसर्जनीय आदेश है। इस सूत्र से इण् से उत्तरवर्ती तथा विसर्जनीय से व्यवहित 'सुप्' के सकार को मूर्धन्यादेश होता है। ऐसे ही - हविः षु । यजुःषु ।
(३) सर्पिष्षु । यहां 'वा शरि (८ | ३ | ३६ ) से विसर्जनीय के स्थान में सकारादेश होता है। इस सूत्र से इण् से उत्तरवर्ती तथा शर् (स्) से व्यवहित 'सुप्' के सकार को मूर्धन्यादेश होता है । 'ष्टुना ष्टुः' (८ ।४ । ४१) से पूर्ववर्ती सकार को षकारादेश है। ऐसे ही - हविष्षु । यजुष्षु ।
मूर्धन्यादेश:
(५) आदेशप्रत्यययोः । ५६ ।
प०वि०-आदेश-प्रत्यययोः ६ । २ ।
स०-आदेशश्च प्रत्ययश्च तौ आदेशप्रत्ययौ, तयो: - आदेशप्रत्यययोः (इतरेतरयोगद्वन्द्वः) ।
"
अनु० - संहितायाम्, सः, अपदान्तस्य मूर्धन्यः, इण्कोरिति चानुवर्तते । अन्वयः-संहितायाम् इणकोरादेशप्रत्यययोरपदान्तस्य सो मूर्धन्यः । अर्थ:-संहितायां विषये इण्कोरुत्तरस्य आदेशो यः सकारः, प्रत्ययस्य च यः सकारस्तस्यापदान्तस्य मूर्धन्यादेशो भवति ।
उदा०-(आदेश) सिषेव । सुष्वाप । (प्रत्ययः ) अग्निषु । वायुषु । कर्तृषु । हर्तृषु ।
आर्यभाषाः अर्थ-(संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (इण्कोः) इण् और कवर्ग से परवर्ती (आदेशप्रत्यययोः) आदेश रूप और प्रत्यय के ( अपदान्तस्य ) अपदान्त (सः) सकार को (मूर्धन्यः) मूर्धन्यादेश होता है ।
उदा०
- (आदेश) सिषेव । उसने सिलाई। सुष्वाप । वह सोया । (प्रत्यय) अग्निषु । अग्नि देवताओं में । वायुषु । वायु देवताओं में । कर्तृषु । कर्ताओं में । हर्तृषु । हरण करनेवालों में ।
सिद्धि - (१) सिषेव । यहां 'षिवु तन्तुसन्ताने' (दि०प०) धातु से लिट्' प्रत्यय है । लकार के स्थान में तिप्' आदेश और 'परस्मैपदानां णल०' (३।४।८२) से तिप्'
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