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________________ ६२२ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अर्थ:-संहितायां विषये पदस्याऽकारात्परस्य समासे वर्तमानस्याऽनुत्तरपदस्थस्याऽनव्ययस्य विसर्जनीयस्य स्थाने कृकमिकंसकुम्भपात्रकुशाकर्णीषु परतो नित्यं सकारादेशो भवति । उदा०-(कृ:) अयस्कारः, पयस्कारः। (कमि:) अयस्काम:, पयस्कामः । (कंस:) अयस्कंस:, पयस्कंस:। (कुम्भ:) अयस्कुम्भ:, पयस्कुम्भः। (पात्रम्) अयस्पात्रम्, पयस्पात्रम्। (कुशा) अयस्कुशा, पयस्कुशा। (कर्णी) अयस्कर्णी, पयस्कर्णी । आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (पदस्य) पद के (अत:) अकार से परवर्ती (समासे) समास में विद्यमान (अनुत्तरपदस्थस्य) उत्तरपद में अनवस्थित (अनव्ययस्य) अव्यय से भिन्न शब्द के (विसर्जनीयस्य) विसर्जनीय के स्थान में (कृ०) कृ, कमि, कंस, कुम्भपात्र, कुशा, कर्णी इन शब्दों के परे होने पर (नित्यम्) सदा (स:) सकारादेश होता है। उदा०-(कृ) अयस्कारः । सुवर्णकार/लोहार । पयस्कारः । दुग्धकार/जलकार। (कमि) अयस्काम । सुवर्ण/लोह की कामना करनेवाला। पयस्कामः । दुग्ध/जल की कामना करनेवाला। (कंस) अयस्कंस: । सोना/लोहे का गिलास। पयस्कंस: । दूध/जल का गिलास । (कुम्भ) अयस्कुम्भ: । सुवर्ण/लोहे का कलश (घड़ा)। पयस्कुम्भः । दूध/जल का कलश। (पात्र). अयस्पात्रम् । सुवर्ण/लोहा का पात्र। पयस्पात्रम् । दूध/जल का पात्र। (कुशा) अयस्कुशा । सुनहरी दर्भ। पयस्कुशा । जलसेचनी कुशा (दर्भ)। (कर्ण) अयस्कर्णी। सुनहरे कानोंवाली। पयस्कर्णी। श्वेत कानोंवाली। सिद्धि-अयस्कार: आदि समस्त पदों में विसर्जनीय के स्थान में सकारादेश स्पष्ट है। यहां 'कुप्वो: एक पौ च' (८।३।३७) से क जिहामूलीय आदेश प्राप्त था। यही उसका अपवाद है। स-आदेश: (१५) अधःशिरसी पदे।४७। प०वि०-अध:शिरसी १।२ (षष्ठ्य र्थे) पदे ७।१। स०-अधश्च शिरश्च ते अध:शिरसी (इतरेतरयोगद्वन्द्व:) । अनु०-पदस्य, संहितायाम्, विसर्जनीयस्य, स:, समासे, अनुत्तरपदस्थस्येति चानुवर्तते। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003301
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1999
Total Pages802
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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