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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
६१५ (२) पयस्कम् । यहां पयस्’ शब्द से 'अल्ये (५।३।८५) से अल्प-अर्थ में क' प्रत्यय है। ऐसे ही-यशस्कम् ।
(३) पयस्काम्यति यहां पयस्' शब्द से 'काम्यच्च' (३।१।९) से काम्यच्' प्रत्यय है। ऐसे ही-यशस्काम्यति ।
(४) पयस्पाशम्। यहां पयस्' शब्द से याप्ये पाश' (५।३।४७) से कुत्सित-अर्थ में 'पाशप्' प्रत्यय है। ऐसे ही-यशस्पाशम् । स-आदेशः
(७) इणः षः।३६। प०वि०-इण: ५ १ ष: ११ ।
अनु०-पदस्य, संहितायाम्, विसर्जनीयस्य, कुप्वोः, अपदादाविति चानुवर्तते।
अन्वय:-संहितायां पदस्येणो विसर्जनीयस्याऽपदाद्यो: कुप्वोः षः।
अर्थ:-संहितायां विषये पदस्येण: परस्य विसर्जनीयस्य स्थानेऽपदाद्यो: कुप्वोः परत: षकारादेशो भवति ।
उदा०-(कुः) सर्पिष्कल्पम्, यजुष्कल्पम्। सर्पिष्कम्, यजुष्कम्। सर्पिष्काम्यति, यजुष्काम्यति। (पु:) सर्पिष्पाशम्, यजुष्पाशम्।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम्) सन्धि-विषय में (पदस्य) पद के (इण:) इण् वर्ण से परवर्ती (विसर्जनीयस्य) विसर्जनीय के स्थान में (अपदाद्यो:) अपदादि (कुप्वो:) कवर्ग और पवर्ग वर्ण परे होने पर (षः) सकारादेश होता है।
उदा०-(कु) सर्पिष्कल्पम् । घृत के सदृश। यजुष्कल्पम् । याजुष मन्त्र के सदृश। सर्पिष्कम् । थोड़ा घृत। यजुष्कम् । थोड़ा याजुष मन्त्र। सर्पिष्काम्यति । वह घृत की इच्छा करता है। यजुष्काम्यति । वह याजुष मन्त्रों के उच्चारण की इच्छा करता है। (पु) सर्पिष्पाशम् । निन्दित घृत। यजुष्पाशम् । निन्दित याजुष मन्त्र (अशुद्ध उच्चारित)।
सिद्धि-(१) सर्पिष्कल्पम् । यहां सर्पिस्' शब्द से ईषदसमाप्तौ कल्पब्देश्यदेशीयरः' (५।३।६७) से ईषदसमाप्ति (थोड़ी अपूर्णता) अर्थ में 'कल्पप्' प्रत्यय है। इस सूत्र से 'सर्पिस्' पद के इण से परवर्ती विसर्जनीय को अपदादि कल्पप' (प्रत्यय) का कवर्ग (क) परे होने पर विसर्जनीय आदेश होता है। ऐसे ही-यजुष्कल्पम् ।
(२) सर्पिष्कम् । यहां सर्पिस्' शब्द से 'अल्पे (५।३।८५) से अल्प-अर्थ में 'क' प्रत्यय है। ऐसे ही-यजुष्कम् ।
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