________________
५६८
पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सo-भोश्च भगोश्च अघोश्च अश्च ते-भोभगोअघोआ:, एते पूर्वा यस्य स:-भोभगोअघोअपूर्वः, तस्य-भोभगोअघोअपूर्वस्य (इतरेतरयोगद्वन्द्वगर्भितबहुव्रीहिः)। भोः, भगो:, अघो:, इत्येते विभक्तिरूपका निपाताः ।
अनु०-संहितायाम्, र:, रोरिति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां भोभगोअघोअपूर्वस्य रो रोऽशि यः।
अर्थ:-संहितायां विषये भोपूर्वस्य, भगोपूर्वस्य, अघोपूर्वस्य अवर्णपूर्वस्य च रो रेफस्याऽशि परतो यकारादेशो भवति। . उदा०-(भो:) भो अत्र। भो ददाति । (भगो:) भगो अत्र । भगो ददाति। (अघो:) अघो अत्र। अघो ददाति। (अपूर्व:) क आस्ते। ब्राह्मणा ददति। पुरुषा ददति।
आर्यभाषा: अर्थ-(भो०) भोः, भगोः, अघो: और अवर्ण जिसके पूर्व है उस (रो:) रु के (र:) रेफ के स्थान में (अशि) अश् वर्ण परे होने पर (य:) यकारादेश होता है।
उदा०-(भोः) भो अत्र । हे ! यहां। भो ददाति । हे ! वह दान करता है। (भगो:) भगो अत्र । हे ! यहां। भगो ददाति। हे ! वह दान करता है। (अघो:) अघो अत्र । हे ! यहां। अघो ददाति। हे ! वह दान करता है। (अवर्णपूर्व) क आस्ते। कौन बैठता है। ब्राह्मणा ददति । ब्राह्मण दान करते हैं। पुरुषा ददति । पुरुष दान करते हैं।
सिद्धि-(१) भो अत्र । भोस्+अत्र । भोरु+अत्र । भो+अत्र । भो य्+अत्र । भोo+अत्र। भो अत्र।
यहां 'भोस्' शब्द के सकार को ससजुषो रुः' (८।२।६६) से 'रु' आदेश है। इस सूत्र से इस 'रु' के रेफ को अश् वर्ण (अ) परे होने पर यकारादेश होता है। 'ओतो गार्ग्यस्य' (८/३/२०) से यकार का लोप होता है। ऐसे ही-भगो अत्र, अघो अत्र । भो ददाति और ब्राह्मणा ददति आदि में हलि सर्वेषाम् (८/३/२२) से यकार का लोप होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है।
(२) क आस्ते। यहां इस सूत्र से रेफ का यकारादेश होता है। लोप: शाकल्यस्य (८।३।१९) से शाकल्य आचार्य के मत में यकार का लोप होता है-क आस्ते।
विशेष: कात्यायन के मत में-वाल- 'भवद्भगवदधवतामोच्चावस्य' (८।३।१) से भवत्, भगवत, अघवत् शब्दों को 'ह' आदेश और इनके 'अव' को ओकारादेश होकर भोः, भगो, अघो: शब्द सिद्ध होते हैं। पतञ्जलि के मत में ये विभक्ति प्रतिरूपक निपात (अव्यय) हैं (महाभाष्य ८।३।१)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org