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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
५६७ रेफ को विसर्जनीय आदेश होता है। विसर्जनीयस्य सः' (८।३।३४) से विसर्जनीय को सकारादेश और स्तो: श्चुना श्चुः' (८।४।४०) से सकार को शकारादेश होता है। ऐसे ही-प्लक्षश्छादयति । वृक्षस्तरति, प्लक्षस्तरति । वृक्षः । प्लक्षः । यहां रेफ को अवसानलक्षण विसर्जनीय आदेश है। विसर्जनीयादेशः
(४) रोः सुपि।१६। प०वि०-रो: ६ १ सुपि ७१। अनु०-संहितायाम्, र:, विसर्जनीय इति चानुवर्तते। अन्वय:-संहितायां रो र: सुपि विसर्जनीयः।
अर्थ:-संहितायां विषये रु इत्येतस्य रेफास्य सुपि प्रत्यये परतो विसर्जनीयादेशो भवति।
उदा०-पय:सु। यश:सु। सर्पिःषु। धनुःषु।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (रो:) रु इसके (र:) रेफ को (सुप्) सुप् {७ (३प्रत्यय परे होने पर (विसर्जनीयः) विसर्जनीय आदेश होता है।
उदा०-पय:सु । नाना दूधों में। यश:सु । नाना यशों में। सर्पिःषु । नाना घृतों में। धनुःषु । नान धनुषों में।
सिद्धि-पय:सु । यहां पयस्' शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से सुप्' प्रत्यय है। 'ससजुषो रु' (८।२।६६) से सकार को 'रु' आदेश है। इस सूत्र से सुप् {७ १३) प्रत्यय परे होने पर 'रु' के रेफ को विसर्जनीय आदेश होता है।
यहां खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८।३।१५) से खर्-लक्षण विसर्जनीय आदेश सिद्ध था। इसका यह पुनर्वचन नियमार्थ है कि सुप' प्रत्यय परे होने पर 'रु' के रेफ को ही विसर्जनीय आदेश होता है, अन्यत्र नहीं, जैसे-गीर्ष, धूर्षु।
सर्पिःषु' आदि में नुम्विसर्जनीयशळवायेऽपि' (८।३।५८) से विसर्जनीय व्यवायलक्षण षत्व होता है।
विशेष: यहां सुपि' से सप्तमी बहुवचन का ही ग्रहण किया जाता है; सुप्-संज्ञक २१ प्रत्ययों का नहीं। य-आदेश:
(५) भोभगोअघोअपूर्वस्य योऽशि।१७। प०वि०-भोभगोअघोअपूर्वस्य ६।१ य: १।१ अशि ७१ ।
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