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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् रु-आदेशः
(१२) कानानेडिते।१२। प०वि०-कान् २।३ आमेडिते ७।१। अनु०-पदस्य, संहितायाम्, रु:, न इति चानुवर्तते । अन्वय:-संहितायां कान् पदस्य न आमेडिते रु:।
अर्थ:-संहितायां विषये कान् इत्येतस्य पदस्य नकारस्यऽऽनेडिते परतो रुरादेशो भवति।
उदा०-काँस्कान् आमन्त्रयति, कांस्कान् आमन्त्रयति। काँस्कान् भोजयति, कांस्कान् भोजयति।
आर्यभाषा: अर्थ-(संहितायाम्) सन्धि-विषय में (कान्) कान् इस (पदस्य) पद के (न:) नकार को (आमेडिते) आमेडित पद परे होने पर (रु:) रु-आदेश होता है।
उदा०-काँस्कान् आमन्त्रयति, कांस्कान् आमन्त्रयति। वह किन-किन को आमन्त्रित करता है। कॉस्कान् भोजयति, कांस्कान् भोजयति। वह किन-किन को भोजन कराता है।
सिद्धि-काँस्कान् । यहां कान्' शब्द को नित्यवीप्सयो:' (८1१।४) से वीप्सा-अर्थ में द्वित्व है और तस्य परमामेडितम्' (८1१२) से परवर्ती कान' शब्द की आमेडित संज्ञा है। इस सूत्र से नकारान्त 'कान्' पद के नकार को आमेडित पद परे होने पर 'ह' आदेश होता है। पूर्ववत् 'रु' के रेफ को विसर्जनीय और अनुनासिक आदेश है। विसर्जनीयस्य सः' (८।३।३४) से विसर्जनीय को सकारादेश होता है। इसका कस्कादिगण (८।३।४८) में पाठ मानकर कुप्वो: एक पौ च' (८३३७) से विसर्जनीय को जिह्वामूलीय आदेश नहीं होता है। विकल्प पक्ष में अनुस्वार आदेश है-कांस्कान् ।
।। इति रु-आदेशप्रकरणम् ।।
आदेशप्रकरणम् लोपादेशः
(१) ढो ढे लोपः।१३। प०वि०-ढ: ६१ ढे ७१ लोप: ११ ॥ नु०-संहितायामित्यनुवर्तते। य:-संहितायां ढो ढे लोपः।
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