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अष्टमाध्यायस्य तृतीयः पादः
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अर्थ:-संहितायां विषये ढकारस्य ढकारे परतो लोपो भवति ।
उदा० - लीढम् । उपगूढम् ।
“सत्यपि पदाधिकारे तस्यासम्भवादपदान्तस्य ढकारस्यायं लोपो विज्ञायते " ( काशिका) ।
आर्यभाषा: अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि- विषय में (ढः) ढकार का (ढ) ढकार वर्ण परे होने पर (लोपः ) लोप होता है।
उदा०
-लीढम् । चाटना । उपगूढम् । आच्छादित करना, छुपाना ।
“पद का अधिकार होते हुये भी पदान्त में ढकार के सम्भव न होने से यह अपदान्त ढकार का ही लोप समझा जाता है (काशिका) ।
सिद्धि-लीढम् । लिह+क्त । लिह्+त । लिढ्+त । लिद्+ध | लिद्+ढ | लि०+ढ । ली+ढ | लीढ+ सु । लीढम् ।
यहां 'लिह आस्वादने' (अदा० उ०) धातु से 'नपुंसके भावे क्तः' (३ | ३ | ११४) से भाव अर्थ में 'क्त' प्रत्यय है। 'हो ढः' (८।२ । ३१) से हकार को ढकार, 'झषस्तथोर्धोऽधः ' (८।२।४०) से तकार को धकार और 'ष्टुना ष्टुः' (८/४/४१) से धकार को टवर्ग ढकार होता है । इस सूत्र से ढकार परे होने पर पूर्ववर्ती ढकार का लोप होता है। यह ढकार का लोप ष्टुत्व पर आश्रित है अत: 'ढो ढे लोप:' (८ 1३ | १३) से ढकार का लोप करते समय 'पूर्वत्रासिद्धम्' (८1२1१) से ष्टुत्व असिद्ध नहीं होता है। लोपे पूर्वस्य दीर्घोऽण:' (६।३।१११) से दीर्घ (ई) होता है। ऐसे ही उप-उपसर्गपूर्वक 'गुहू संवरणे' (भ्वा०आ०) धातु से उपगूढम् ।
लोपादेश:
प०वि० - र: ६ । १ रि ७ । १ ।
अनु०-पदस्य, संहितायाम्, लोप इति चानुवर्तते ।
अन्वयः - पदस्य रो रि लोपः ।
अर्थ:-संहितायां विषये पदस्य रेफस्य रेफे परतो लोपो भवति ।
उदा०-नीरक्तम् । दूरक्तम् । अग्नी रथः । इन्दू रथः । पुना रक्तं
वासः । प्राता राजक्रयः ।
(२) रो रि |१४|
आर्यभाषाः अर्थ- (संहितायाम् ) सन्धि - विषय में (पदस्य) पद के (रः) रेफ का (रि) रेफ परे होने पर (लोपः) लोप होता है।
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