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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् सं वरत्रा दधातन (ऋ० १० १०१।५)। 'धत्त' इति प्राप्ते। (तन:) जुजुष्टन (ऋ० ४।३६।७) । 'जुषत' इति प्राप्ते। (थन:) यदिष्ठन। 'यद् इच्छत' इति प्राप्ते।
आर्यभाषा: अर्थ- (छन्दसि) वेदविषय में (अङ्गात्) अग से परे (तस्य) त (प्रत्ययस्य) प्रत्यय के स्थान में (तप्तनप्तनथना:) तप, तनप, तन, थन ये आदेश (च) भी होते हैं।
उदा०-(तप्) शृणोत ग्रावाण: (तै०सं० १।३।१३।१)। 'शृणुत' यह रूप प्राप्त था। सुनोत (ऋ० ७।३२।८)। सुनुत' यह रूप प्राप्त था। (तनप्) संवरत्रा दधातन (ऋ० १० १०१ १५)। 'धत्त' यह रूप प्राप्त था। (तन) जुजुष्टन (ऋ० ४।३६ १७)। जुषत' यह रूप प्राप्त था। (थन) यदिष्ठन। यद् इच्छत' यह रूप प्राप्त था।
सिद्धि-(१) शृणोत । श्रु+लोट् । श्रु+ल। श्रु+श्नु+त। शृ+नु+तम् । शृ+णु+त। शृणुत।
यहां 'श्रु श्रवणे (स्वा०प०) धातु से लोट् च' (३।१।१६२) से लोट्' प्रत्यय है। तिप्तस्झि० (३।४।७८) से लकार के स्थान में 'त' आदेश है। "श्रुवः शुच (३।१।७४) से 'अनु' विकरण-प्रत्यय और 'श्रु' के स्थान में 'शृ' आदेश है। इस सूत्र से 'त' प्रत्यय के स्थान में 'तप्' आदेश होता है। इस आदेश के पित्' होने से यह 'सार्वधातुकमपित्' (२।२।४) से ङित् नहीं होता है। अत: 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से अङ्ग को गुण होता है।
(२) सुनोत । पुत्र अभिषवें' (स्वा०उ०) धातु से पूर्ववत् ।
(३) दधातन । डुधाञ् धारणपोषणयोः' (जु०३०) धातु से त' प्रत्यय के स्थान में तनप्' आदेश है। यहां तनप्' प्रत्यय के पित्' होने से यह पूर्ववत् डित् नहीं है अत: 'श्नाभ्यस्तयोरात:' (६।४।११२) से प्राप्त अङ्ग के आकार का लोप नहीं होता है।
(४) जुजुष्टन। यहां जुषी प्रीतिसेवनयो:' (तु०आ०) धातु से त' प्रत्यय के स्थान में तन' आदेश है। तुदादिभ्यः श:' (३।११७७) से 'श' विकरण-प्रत्यय और 'श' को छान्दस शुलु' आदेश और 'श्लौ' (६।१।१०) से धातु को द्वित्व होता है। इस सूत्र से त' प्रत्यय के स्थान में 'तन' आदेश है। ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से तकार को टवर्ग टकार होता है।
(५) इष्ठन। यहां 'इषु इच्छायाम् (भ्वा०प०) धातु से त' प्रत्यय के स्थान में 'थन' आदेश है। 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से थकार को टवर्ग ठकार होता है।
।। इति प्रत्ययादेशप्रकरणम् ।।
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